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भगवती आराधना
व्यावणितस्य परिणामस्य गुणमाहात्म्यकथनायोत्तरगाथा
एवं सदिपरिणामो जस्स दढो होंदि णिच्छिदमदिस्स ।
तिव्वा वेदणाए वोच्छिज्जदि जीविदासा से || १६३ ॥
एवं सदिपरिणामो' व्यावणितस्मृतिपरिणामो यः " स्मार्तज्ञानमेव परिणाम: । 'जस्स दढो होज्ज' 'यस्य तैर्दृढो भवेत् । 'णिच्छियमविस्स' निश्चित मतेः । करिष्याम्येव शरीरनिक्ष ेपणं इति कृतनिश्चयस्य । 'जीविदासा वोच्छिज्जइ' जीविते आशा व्युच्छिद्यते । 'तिब्वाए वेदणाएं' तीव्रायामपि वेदनायामुदीर्णायां । एतत्प्रतीकारं कृत्वा जीवामीति चिन्ता न भवति । 'से' तस्येति जीविताशाव्युच्छेदो गुणः सूचितः । परिणामं गदं ॥ १६३ ॥ 'उवधि जहणा' इति पदं व्याचष्टे प्रबन्धेन
संजमसाधणमेतं उवधिं मोत्तूण सेसयं उवधिं ।
पजहदि विसुद्धलेस्सो साधू मुतिं गवेसंतो || १६४॥
'संजमसाहणमेत्तं' - संयमः साध्यते येनोपकरणेन तावन्मात्रं कमण्डलुपिच्छमात्रं । 'उवधि' परिग्रहं 'मोत्तूण' मुक्त्वा । 'सेसयं' अवशिष्ट' । 'उर्वाध' अवशिष्ट उपधिर्नाम पिच्छान्तरं कमण्डल्वन्तरं वा तदानीं संयमसिद्धो न कारणमिति संयमसाधनं न भवति । येन सांप्रतं संयमः साध्यते तदेव संयमसाधनं अथवा ज्ञानोपकरणं अवशिष्टोपधिरुच्यते ! 'पजहद्द' प्रकर्षेण योगत्रयेण त्यजति । 'विसुद्धलेस्सो' विशुद्धलेश्यः । 'साहू' साधुः । 'मुक्ति' मुक्ति कर्मणामपायं । 'गवेसंतो' मृगयन् । लोभकषायेणाननुरंजिता योगवृत्तिरिह विशुद्धलेश्या
ऊपर कहे परिणामके गुणोंका माहात्म्य कहनेके लिए गाथा कहते हैं
गा० - ऊपर कहा स्मृति परिणाम 'मैं शरीरत्याग करूँगा ही' ऐसा निश्चय करनेवालेके दृढ़ होता है । उसके तीव्र वेदना होनेपर जीवनकी आशा नष्ट हो जाती है || १६३ ||
टी० - 'मैं शरीरका त्याग करूँगा ही' ऐसा जो दृढ़ निश्चय कर लेता है तीव्र भी वेदनाक होने पर मैं उसका प्रतीकार करके जीवित रहूँ ऐसी चिन्ता उसे नहीं होती । अतः 'जीवनकी आशाका विनाश' उसका गुण सूचित किया है ॥ १६३ ॥
'उवधिजहण' अर्थात् परिग्रहत्यागका विस्तारसे कथन करते हैं
गा०
- मुक्तिको खोजनेवाला विशुद्ध लेश्यासे युक्त साधु संयमके साधनमात्र परिग्रहको छोड़कर शेष परिग्रहको प्रकर्षं अर्थात् मन-वचन-कायसे त्याग देता है ॥१६४॥
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टो० -- जिस उपकरणसे संयमकी साधना की जाती है वह उपकरण कमण्डलु और पीछीमात्र है । उनको छोड़कर जो शेष परिग्रह है- दूसरी पीछी दूसरा कमण्डलु, वह उस समय संयमकी सिद्धि में कारण न होनेसे संयमका साधन नहीं है । जिससे वर्तमान में संयमकी साधना होती है वही संयमका साधन है । अथवा शेष परिग्रह में ज्ञानके उपकरण शास्त्र आदि कहे हैं क्योंकि समाधिके समय उनका उपयोग नहीं रहता । मुक्ति अर्थात् कर्मोंका विनाश करनेका इच्छुक साधु पीछी कमण्डलुमात्र परिग्रहके सिवाय शेष परिग्रहको मन-वचन-कायसे छोड़ता है । वह साधु विशुद्धलेश्यासे युक्त होता है । यहाँ लोभकषायसे अननुरंजित ( नहीं रंगी हुई अर्थात् लोभरहित )
१. यस्मात्तज्ज्ञा-आ० मु० २. यस्य स्मृतैर्दृ- -आ० मु० ।
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