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विजयोदया टीका
१९५ कुप्यन्ति हसन्ति वा । आत्मविराधना मिथ्यात्वाराधना च । द्वारपार्श्वस्थ जन्तुपीडा स्वगात्रमर्द्दने च शिक्याव - लम्बितभाजनानि वा अनिरूपितप्रवेशी अभिहंति । तस्मादूर्ध्वं तिर्यक् चावलोक्य प्रवेष्टव्यं ।
तदानीमेव लिप्तां, जलसेकार्द्रा, प्रकीर्णहरितकुसुमफलपलाशादिभिर्निरन्तरां, सचित्तमृत्तिकावतीं, छिद्रबहुलां, विचरत्त्रसजीवां, गृहिणां भोजनार्थं कृतमण्डलपरिहारां, देवताध्युषितां निकटभूतना 'नाजनामंतिकस्थासनशयनामासीनशयितपुरुषां, मूत्रात्रपुरीषादिभिरुपहतां भूमिं न प्रविशेत् ।
संयमविराधना आत्मविराधनां मिथ्यात्वाराधनां च परिहतु भुक्त्वा निर्गच्छन्नपि शनैरतीवानवनतो वन्दमानं प्रति दत्तयोग्याशीर्वादो निर्गच्छेत् । तथा भिक्षाकालं, बुभुक्षाकालं च ज्ञात्वा गृहीतावग्रहः, ग्रामनगरादिकं प्रविशेदीय समितिसम्पन्नः । भोजनकालपरिमाणं ज्ञात्वा ग्रामादिभ्यो निःसरेत् । जिनायतनं, यतिनिवासं वा प्रविशन्प्रदक्षिणां कुर्यान्निसोधिकाशब्दप्रयोगं च । निर्गन्तुकाम आसीधिकेति । आदिशब्देन परिगृहीता स्थानभोजनशयनगमनादिक्रिया । तत्रापि यत्नो यतीनां । तं सकलं वेद्मि गुरुकुलवासी सूत्रार्थज्ञोऽहं, न मयाचारक्रमः सूत्रार्थो वान्यसकाशे ज्ञातव्य इत्यभिमानं न वहेत् ।। १५२ ।।
शिक्षायामुद्येोगपरो भवेदित्याह -
कंठदेहिं विपाणेहिं साहुणा आगमो हु कादव्वो । सुत्तस्स य अत्थस्स य सामाचारी जध तहेव ॥ १५३ ॥
संकुचित करनेपर शरीरमें पीड़ा होती है। नीचेके भागको फैलाकर प्रवेश करनेपर लोग देखकर कुपित होंगे या हँसेंगे । तथा आत्माकी विराधना और मिथ्यात्वको आराधना होती है ।
अपने शरीरका मर्दन करनेपर द्वारके पार्श्वभाग में स्थित जीवोंको पीड़ा होती है । विना देखे घर में प्रवेश करनेवाला साधु छीकेपर रखे बरतनोंसे टकराता है । अतः ऊपर और इधरउधर देखकर घरमें प्रवेश करना चाहिए । जो भूमि तत्काल लीपी गई हो, जलके सिंचनसे गीली हो, हरे फूल, फल पत्र आदिसे सर्वत्र ढकी हो, सचित्त मिट्टीवाली हो, जिसमें बहुत छिद्र हों, जिसपर सजीव विचरते हों, गृहस्थोंके भोजके लिए मण्डल आदि रचे गये हों, जहाँ देवताका निवास हो, पासमें बहुतसे आदमी बैठे हों, आसन शय्या पासमें हों, पुरुष सोये या बैठे हों, टट्टी पेशाब आदि पड़े हों, उस भूमिसे प्रवेश नहीं करना चाहिए। संयमकी विराधना, आत्माकी विराधना और मिथ्यात्वकी आराधनासे बचने के लिए भोजन करके निकलते हुए भी धीरेसे अति नम्र हो, वन्दना करनेवालोंको आशीर्वाद देते हुए निकलना चाहिए। तथा भिक्षाका समय और अपनी भूख समयको जानकर कोई नियम ग्रहण करके ईर्यासमितिपूर्वक ग्राम नगर आदिमें प्रवेश करना चाहिए। और भोजनके कालका परिमाण जानकर ग्रामादिसे निकलना चाहिए । जिन मन्दिरमें अथवा साधु निवासमें प्रवेश करते समय निसिधिका शब्दका प्रयोग करना चाहिए और प्रदक्षिणा करना चाहिए । निकलते समय 'आसीधिका' शब्दका प्रयोग करना चाहिए । आदि शब्दसे स्थान, भोजन, शयन, गमन आदि क्रियाका ग्रहण किया है । उनमें भी यतियों को सावधानता बरतनी चाहिए। मैं सब जानता हूँ, गुरुकुलका वासी और सूत्रके अर्थका ज्ञाता हूं, मुझे दूसरेसे आचारक्रम और सूत्रार्थ नहीं जानना है' ऐसा अभिमान नहीं करना चाहिए || १५२ || शिक्षा में उद्योग करना चाहिए, ऐसा कहते हैं
१. त भाजना-अ० । २. एषापि गाथा क्षिप्तैव-मूलारा० !
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