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विजयोदया टीका
२०३ लिङ्गादिकस्तेषामाचारो निरूप्यते-एकोपधिकं अवसानं लिङ्गं परिहारसंयतानां । वसतिमाहारं च मुक्त्वा नान्यद् गृह्णन्ति तृणफलकपीठकटकादिकं । संयमाथं प्रतिलेखनं गृह्णन्ति । त्यक्तदेहाश्च चतुर्विधानुपसर्गान्सहन्ते। दृढधृतयो निरन्तरं ध्यानावहितचित्ताः । अस्ति नो बलवीयं सर्वगुणसमग्रता च । एवंभूता अपि यदि गणे वसामो वीर्याचारो न प्रवर्तितः स्यादिति मत्वा त्रयः, पश्च, सप्त, नव वा निर्यान्ति । रोगेण वेदनयोपहताश्च तत्प्रतिकार' च न कुर्वन्ति । प्रायोग्यमाहारं मुक्त्वा, वाचनां प्रश्न परिवर्तनां मुक्त्वा सूत्रार्थपौरुषीष्वपि सूत्रार्थमेवानुप्रेक्षन्ते । एवं यामाष्टकेऽपि निरस्त निद्रा ध्यायन्ति । स्वाध्यायका क्रिया न सन्ति तेषां । यस्माच्छमशानमध्येऽपि ध्यानं न प्रतिषिद्धं । आवश्यकानि यथाकाल कुर्वन्ति । कालद्वये कृतोपकरणशोधना अनुज्ञाप्य देवकुलादिषु वसन्ति । अनियमानस्वामिकेषु यस्येदं सोऽनुज्ञानं नः करोतु इति वसन्ति । आसीधिकां च निषीधिकां च निष्क्रमणे प्रवेशे च संपादयन्ति । निर्देशक मुक्वा इतरे दविधे समाचारे वर्तन्ते । उपकरणादिदानं, ग्रहणं, अनुपालनं, विनयो, वन्दना सल्लापश्च न तेषामस्ति संघेन सह । गहस्थैरन्यलिङ्गिभिश्च दीयमानं योग्यं गृह्णन्ति । तैरपि न शेषोऽस्ति संभोगः । तेषां त्रयाणां, पञ्चानां, सप्तानां, नवानां च परस्परेणास्ति संभोगः ।
कप्पट्टिदो णुकप्पी भुजणसंघाडदाणगहणे वि । सवासवणालावणाहि भुजन्ति अण्णोणं ॥
है। तब कल्पस्थित परिहारसंयममें प्रवेश करता है। छह माह बीतनेपर वह भी परिहारमें निविष्ट होता है । इस प्रकार परिहारमें निविष्ट होनेमें तीन मुनियोंको अठारह मास लगते हैं। इसी तरह पाँच, सात और नौ का भी अठारह मास काल जानना । इनका कथन अन्यत्र नहीं मिला।
परिहारसंयतोंका लिंगादिक आचार कहते हैं
वसति और आहारके सिवाय अन्य तृणासन, लकड़ीका आसन, चटाई आदि ग्रहण नहीं करते । संयमके लिए पीछी ग्रहण करते हैं । शरीरसे ममत्व छोड़कर चार प्रकारके उपसर्गोको सहते हैं। दृढ धैर्यशाली तथा निरन्तर ध्यानमें चित्त लगाते हैं । 'हममें बलवीर्य और सब गणोंकी पूर्णता है। ऐसे होते हुए भी यदि हम संघमें रहते हैं तो वीर्याचारका पालन नहीं होता। ऐसा मानकर तीन, पाँच, सात अथवा नौ संयमी एक साथ निकलते हैं। रोग और वेदनासे पीड़ित होने पर उसका इलाज नहीं करते। वाचना, पूछना और परिवर्तनोंको छोड़कर सूत्रार्थ और पौरुषीमें सूत्रार्थका ही चिन्तन करते हैं । आठों पहर निद्रा त्यागकर ध्यान करते हैं। स्वाध्याय काल और प्रतिलेखना आदि क्रिया उनके नहीं होती; क्योंकि श्मशानमें भी उनके लिए ध्यानका निषेध नहीं है । यथासमय आवश्यक करते हैं। दोनों समय उपकरणोंका शोधन करते हैं। आज्ञा लेकर देवालय आदिमें रहते हैं। जिन देवालयों आदि स्थानोंके स्वामियोंका पता नहीं होता, 'जिसका यह है वह हमें स्वीकारता दें' ऐसा कहकर निवास करते हैं | निकलते और प्रवेश करते समय आसीधिका और निषीधिका क्रिया करते हैं । निर्देशकको छोड़कर शेष दस प्रकारके सामाचार करते हैं। उपकरण आदि देना, लेना, अनुपालन, विनय, वन्दना, वार्तालाप आदि व्यवहार उनका संघके साथ नहीं होता । गृहस्थ अथवा अन्य लिगियोंके द्वारा दी हुई योग्य वस्तुको ग्रहण करते हैं । उनके साथ भी शेष सम्बन्ध नहीं होता। उनमेंसे तीन, पाँच, सात अथवा नौ संयतोंका परस्परमें व्यवहार होता है।
कल्पस्थित आचार्य और परिहारसंयमी परस्परमें संघाटदान संघाटग्रहण (सहायता देना १. कारकं च न अ०-कारकं कंचन-आ० । २. विशन्ति मु० ।
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