________________
१९६
भगवती आराधना 'कण्ठगदेहिं वोत्यादिना' । कण्ठगतैः प्राणैः सह वर्तमानेनापि साधुना आगमशिक्षा कर्तव्यैव सूत्रस्यार्थस्य सामाचारस्य च ॥१५३॥ क्षेत्रपरिमार्गणां व्याचष्टे
संजदजणस्स य जम्हि फासुविहारो य सुलभवृत्ती य ।
तं खेत्तं विहरंतो णाहिदि सल्लेहणाजोग्गं ॥१५४॥ 'संजदजण' इत्यादिना । असंयमान् हिंसादीन्ज्ञात्वा श्रद्धाय च तेभ्य उपरतो व्यावृत्तः सम्यग्यतः संयतः इत्युच्यते तस्य संयतजनस्य । 'जम्हि' यस्मिन्क्षेत्रे । 'फासुविहारो य' प्रासुकं विहरणं जीवबाधारहितं गमनं अत्रसद्वरितबहलत्वादप्रचुरोदककर्दमत्वाच्च क्षेत्रस्य । 'सुलभवत्तीय' सुखेनाक्लेशेन लभ्यते वृत्तिराहारो यस्मिनक्षत्रे। 'तं खेत्तं' तत्क्षेत्रं । 'णाहिवि' ज्ञास्यत्यात्मनः परस्य वा । 'सल्लेहणाजोग्गं' सम्यककायकषायतन करणं सल्लेखना तस्या योग्यं । कः ? 'विहरंतो' देशान्तराणि भ्रमन् ॥१५॥ न देशान्तरभ्रमणमात्रादनियतविहारी भवति किन्त्वेवंविध इत्याचष्टे
वसधीसु य उवधीसु य गामे णयरे गणे य सण्णिजणे ।
सव्वत्थ अपडिबद्धो समासदो अणियदविहारो॥१५५।। 'वसईसु अ' इत्यादिना-'वसतिषु' उपकरणेषु । ग्रामे नगरे गणे श्रावकजने च । सर्वत्र अप्रतिबद्धः ।
गा०-प्राणोंके कण्ठमें आ जानेपर भी साधुको आगमका अभ्यास अवश्य करना चाहिए। जैसे वह सूत्रका और अर्थका और समाचारीका अभ्यास करता है उसी प्रकार उसे आगमका अभ्यास करना चाहिए ॥१५३॥
टी०-कण्ठगत प्राणोंके होते हुए भी साधुको आगमकी शिक्षा करना ही चाहिए तथा सूत्र, अर्थ और सामाचारीकी भी शिक्षा करना चाहिए ॥१५॥
विशेष०-आशाधर इस गाथाको प्रक्षिप्त बतलाते हैं। क्षेत्र परिमार्गणाको कहते हैं
गा०-जिस क्षेत्रमें संयमीजनका प्रासुक विहार और सुलभ आहार हो, वह क्षेत्र देशान्तरमें भ्रमण करनेवाला सल्लेखनाके योग्य जानता है ॥१५४|| • टी०-असंयमरूप हिंसा आदिको जानकर और श्रद्धान करके जो उनसे अलग होता है अर्थात् उनका त्याग करता है उस सम्यक् यतको संयत कहते हैं। संयमी मनुष्यका जिस क्षेत्रमें प्रासुक विहार अर्थात् जीव बाधारहित गमन होता है; क्योंकि क्षेत्रमें त्रस और हरितकायकी बहुलता और पानी कीचड़की अधिकता नहीं होनी चाहिए। तथा जहाँ वृत्ति अर्थात् आहार सुखपूर्वक विना क्लेशके प्राप्त होता है वह क्षेत्र देशान्तरमें विहार करनेवाला अनियत विहारी साधु सल्लेखनाके योग्य जानता है। सम्यक् रीतिसे शरीर और कषायके कृश करनेको सल्लेखना कहते हैं उसके योग्य वह क्षेत्र होता है ॥१५४॥
आगे कहते हैं कि केवल देशान्तरमें भ्रमण करनेसे अनियत विहारी नहीं होता किन्तु जो ऐसा होता है
गा०-वसतियोंमें और उपकरणोंमें ग्राममें नगरमें संघमें और श्रावकजनमें सर्वत्र यह मेरा है इस प्रकारके संकल्पसे रहित साधु संक्षेपसे अनियत विहारी होता है ॥१५५।।
टी०-वसति, उपकरण, ग्राम, नगर, गण और श्रावकजनमें जो सर्वत्र अप्रतिबद्ध है, यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org