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विजयोदया टीका
सहायहस्तावलम्बनं कुर्वन्ति । वाचनादिकां च न कुर्वन्ति यामा'ष्टकेऽप्यनिद्रा एकचित्ता ध्याने यतन्ते । यदि बलादायाति निद्रा तत्राकृतप्रतिज्ञाः स्वाध्यायकालप्रतीक्षणादिकाश्च क्रियास्तेषां न सन्ति । श्मशानमध्येऽपि तेषां ध्यानमप्रतिषिद्ध आवश्यकेषु च प्रयतन्ते। उपकरणप्रतिलेखनां कालद्वयेऽपि कुर्वन्ति । सस्वामिकेषु देवकुलादिषु तदनुज्ञया वसन्ति । अज्ञायमानस्वामिकेषु यस्येदं सोऽनुज्ञां करोतु इत्यभिधाय वसन्ति । सहसातिचारे जाते अशुभपरिणामे वा मिथ्या मे दुष्कृतमिति निवर्तते । दशविधे समाचार प्रवर्तन्ते । दानं, ग्रहणं, अनुपालना, विनयः, सहभोजीनं च नास्ति संघेन तेषां: कारणमपेक्ष्य केषांचिदेक एव सल्लापः कार्यः। यत्र क्षेत्रे सधर्मा तत्क्षेत्रं न प्रविशन्ति । मौनावग्रहनिरताः पंथानं पृच्छन्ति, शंकितव्यं वा द्रव्यं शय्याधरगृहं वा ।. एवं तिस्र एव भाषाः । ग्रामाद्बहिरागंतुकागारे कल्पस्थितेनानुज्ञाते वसन्ति । पशुपक्षिप्रभृतिभिर्यत्र ध्याने विघ्नो भवति ततः स्थानादपयांति। को भवान्, कुत आयातः, क्व प्रस्थितः, कियत्कालं अत्र भवतो वसनं, कति ययमिति पुष्टाः श्रमणोऽहमित्येवं प्रतिवचनमेकं प्रयच्छन्ति, इतरत्र कुततूष्णीभावाः । अपसरातः स्थानादवकाशं में प्रयच्छ, परिपालय गृहं, इत्यादिको वाग्व्यापारो यत्रान्येषां भवति, तत्र न निवसन्ति । बहिरपि वसतः यदि भवति, ततोऽपयान्ति । स्वावासगृहे प्रज्वलिते न चलन्ति चलन्ति वा गोचर्यायामप्राप्तायां
उत्पन्न हुई वेदनाका प्रतीकार नहीं करते । जब तपसे अत्यन्त थक जाते हैं तब सहायके रूपमें एक दूसरेका सहारा लेते हैं । वाचना आदि नहीं करते। आठों पहर भी नहीं सोते और एकाग्र होकर ध्यानमें प्रयत्न करते हैं। यदि अचानक निद्रा आ जाती है तो सो लेते हैं, नहीं सोनेकी प्रतिज्ञा उनके नहीं होती । स्वाध्यायके समय उनके प्रतिलेखना आदि क्रिया नहीं होती। स्मशानके मध्यमें भी वे ध्यान कर सकते हैं उसका उनके लिए निषेध नहीं है । और आवश्यकोंमें प्रयत्नशील रहते हैं । उपकरणोंकी प्रतिलेखना दोनों समय करते हैं। जिन देवकुलादिके स्वामी होते हैं उनमें उनकी आज्ञा लेकर ही निवास करते हैं। जिन मन्दिरों के स्वामीका पता नहीं होता उनमें 'जिनका यह है वह हमें स्वीकृति प्रदान करें' ऐसा कहकर निवास करते हैं। सहसा अतिचार लगने पर अथवा अशुभ परिणाम होने पर 'मेरा दुष्कृत मिथ्या हो' ऐसा कहकर निवृत्त हो जाते हैं । दस प्रकारके समाचारका पालन करते हैं। संघके साथ उनका देन, लेन, अनुपालना, विनय
और सहभोजन या वार्तालाप नहीं होता। आवश्यकता होने पर किसीसे एक ही व्यक्तिको बात करना चाहिए। जिस क्षेत्रमें साधर्मी मुनि हों, उस क्षेत्रमें वे नहीं जाते। मौनका नियम पालन करते हैं किन्तु, मार्ग या शंका युक्त द्रव्य और वसतिकाके स्वामीका घर पूछ लेते हैं । इस प्रकार तीन ही उनकी भाषा होती हैं । गाँवसे बाहर आने वालोंके लिए जो मकान होता है उसमें कल्पस्थित मुनिकी अनुज्ञा मिलने पर ठहरते हैं। जिस स्थानमें पशु-पक्षी आदिके द्वारा ध्यानमें विघ्न होता हो वहाँसे चले जाते हैं। कोई पूछे कि आप कौन हैं, कहाँसे आये हैं, कहाँ जाते हैं, कितने समय तक आप यहाँ रहेंगे ? तो 'मैं श्रमण हूं' इस प्रकार एक ही उत्तर देते हैं, शेष प्रश्नोंके संबंधमें चुप रहते हैं । 'यहाँसे जाओ, मुझे स्थान दो, घरको देखना, इत्यादि वचन व्यवहार जहाँ अन्य लोग करते हैं वहाँ निवास नहीं करते । घरके बाहर भी ठहरने पर यदि कोई ऐसा व्यवहार करता है तो वहाँसे भी चले जाते हैं। जिस घरमें वे रहते हैं उसमें आग लगने पर वहाँसे नहीं जाते
१. यामाके अ० । यामाकष्टके-आ०। २. लनं-आ० मु०। ४. इतरेत्र आ० । इतरे कृत-मु०। ५. न चलन्ति वा-अ० ।
३. सहजल्पनं-आ० मु० ।
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