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भगवती आराधना
प्रवर्तमानं दृष्ट्वा सर्वेऽपि सुचारित्राः सुतपसः, शुद्धलेश्या यतयः अतिशयवतीं संसारभीरुतां प्रतिपद्यन्ते । न वयमतीव संसारभीरवः यथायं भगवान् अतएव नश्चारित्रं तपश्च सातिचारं इति मन्यमानाः ।। १४६ ।। उत्तरगाथया एतदाचष्टे न केवलं अतिशयितचारित्रतपोगुण एव परं संविग्नं करोति किंतु एवंभूतोऽपि
इत्याचष्टे
पियधम्मवज्जभीरू सुत्तत्थविसारदो असढभावो ।
संवेगाविद य परं साधू यिदं विहरमाणो || १४७॥
'पियधम्मवज्जभीरू' प्रिय उत्तमक्षमादिधर्मो यस्य, यश्चावद्यस्य पापस्य भीरुः । 'सुत्तत्यविसार दो' सूत्रार्थयोर्निपुण: । 'असढभावो' शाठयरहितः । 'संवेग्गाविदि य' परं संविग्नं करोति । 'साधू' साधुः । 'णियदं' सर्वकालं 'विहरमाणो' देशान्तरातिथिः ॥ १४७॥
पूर्व गाथायां परस्थिरीकरणं प्रतिपाद्य उत्तरयात्मानमपि स्थिरयति इत्यभिधत्तेसंविगदरे पासिय पियधम्मदरे अवज्जभीरुदरे ।
सयमवि पियरिधम्मो साधू विहरंतओ होदि ॥ १४८ ॥
'ठिदियरणं' । 'संविग्गतरं' इत्यादिकया । असकृत्पञ्चविधपरावर्तनिरूपणा हितचेतस्तयोपगततदागमनभयातिशयाः संविग्नतराः । अभिनवकर्मनिरोधं चिरंतनगलनं करोति, अभ्युदयनिः श्रेयससुखानि च प्रयच्छति सुचरितो धर्म इति । धर्मस्य फलमाहात्म्ये अनारतं चेतः समाधानात्प्रियधर्मतराः, स्वल्पमप्यशुभयोगानामवसरा
वाले अनियत विहारी साधुको देखकर अन्य मुनि जो सम्यक् आचारवान् हैं, तपस्वी हैं, विशुद्ध लेश्यावाले हैं वे भी प्रभावित होकर और भी अधिक आचार, तप और लेश्यामें बढ़नेके लिए प्रयत्नशील होते हैं । यह अनियतवाससे परोपकार होता है । दर्शनविशुद्धिका लाभ तो अपना उपकार है ॥ १४६ ॥
आगेकी गाथासे कहते हैं कि केवल विशिष्ट चारित्र और तप ही दूसरेको संसारसे विरक्त नहीं करता किन्तु
गा०—जो उत्तम क्षमा आदि धर्मका पालक है और पापसे डरता है, सूत्र और उसके अर्थ - में निपुण है, शठता से रहित है ऐसा सदा देशान्तर में विहार करनेवाला साधु दूसरोंमें विराग उत्पन्न करता है ॥ १४७॥
पूर्वगाथा में दूसरोंके स्थिरीकरणका कथन किया है । आगेकी गाथासे अपने भी स्थिरीकरणको कहते हैं
गा० - संविग्नतर प्रिय धर्मतर और अवद्य भीरुतर साधुको देखकर विहार करनेवाला साधु स्वयं भी प्रिय स्थिर धर्मतर, संविग्नतर और अवद्य भीरुतर होता है || १४८||
टी० - बार-बार पाँच प्रकारके परावर्तनोंका निरूपण चित्तमें बैठ जानेसे जो उस परावर्तनके आगमन से अत्यन्त भीत होते हैं वे साधु संविग्नतर होते हैं । अच्छी तरह पालन किया गया और पुराने कर्मों की निर्जरा करता है। तथा इहलौकिक धर्मके फलके इस माहात्म्यमें जिनका चित्त लीन होता है दे
धर्म नये कर्मों के आनेको रोकता है अभ्युदय और मोक्षका सुख देता है ।
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