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भगवती आराधना 'णाणादेसे कुसलो णाणादेसे गदाण सत्थाणं ।
अभिलाव अत्थकुसलो होदि य देसप्पवेसेण ॥१५०॥ अतिशयार्थकुशलताख्यं गणं कथयति
सुत्तत्थथिरीकरण अदिसयिदत्थाण होदि उवलद्धी ।
आयरियदंसणण दु तम्हा सेविज्ज आयरियं ॥१५१।। __'सुत्तत्थथिरीकरणं' अल्पवर्णरचनं, अभिधेयविषयसंशयाकारि सारार्थवदभ्यन्तरीकृतोपपत्तिक, प्रमाणान्तरदर्शित वस्तुतद्रूपविरुद्धानुपदर्शनेन निर्दोष इत्येतद्गुणसहितं सूत्रं तस्यार्थो वाच्यं बाह्यः आन्तरो वा अर्थः, तयोः सूत्रार्थयोः थिरीकरणं इत्थमेवेदं सूत्रं शब्दतः, अभिधेयं चास्येदमेवेति यत्तत । 'होदि उवलद्धी' अतिशयेनार्थोपलब्धिर्भवति । 'आयरियदंसणेण' आचार्याणां दर्शनेन । तु शब्दः पादपूरणः अवधारणार्थो वा। आचार्यदर्शनेनैव अथवा सूत्रार्थानां स्थिरीकरणं व्याख्यातॄणामाचार्याणां तत्र दर्शनात् । 'अदिसइदत्थाणं' अतिशयितानां सूत्रार्थानां 'उवलद्धी' उपलब्धिः। 'होदि' भवति । प्रमाणनयनिक्षेपनिरुक्त्या अनुयोगद्वारेण निरूप्यमाणः सूत्रार्थो अतिशयितो भवति । आचार्याणां व्याख्यातॄणां दर्शनेन मतभेदेन । केचिनिक्षेपमुखेनैव सूत्रार्थमुपपादयन्त्यपरे नैगमादिविचित्रनयानुसारेण अन्ये सदाद्यनुयोगोपन्यासेन । अपरे ‘अदिसयसत्थाणं होइ
- गा०-देशान्तरमें जानेसे अनेक देशोंके सम्बन्धमें कुशल हो जाता है। अनेक देशोंमें पाये जानेवाले शास्त्रोंके शब्दार्थके विषयमें कुशल होता है ॥१५०॥
अतिशय अर्थकुशलता नामक गुणको कहते हैं
गा०-आचार्योंके दर्शनसे ही सूत्र और अर्थका स्थिरीकरण और अतिशयित अर्थोंकी उपलब्धि होती है । इसलिये आचार्यकी सेवा करनी चाहिए ॥१५॥
टी०-थोड़े शब्दोंमें रचा गया हो, अर्थके विषयमें संशय उत्पन्न न करता हो, सारसे भरा हो, जिसकी उपपत्ति उसीमें गभित हो, और अन्य प्रमाणोंके द्वारा वस्तुका जो स्वरूप बतलाया गया है उसके विरुद्ध कथन न करनेसे निर्दोष हो। जिसमें ये गुण होते हैं वह सूत्र है। उसका अर्थ बाह्य और आन्तर दोनों प्रकारका है। इन सूत्र और उसके अर्थका स्थिरीकरण-यह सूत्र शब्दरूपसे इसी प्रकार है अर्थात् इसके शब्द ठीक हैं और इसका अर्थ भी यही है-यह सूत्रार्थका स्थिरीकरण है । आचार्योंके पास रहनेसे यह लाभ होता है तथा अतिशयित सूत्रार्थको उपलब्धि होती है।
जो सूत्रका अर्थ प्रमाण नय निक्षेप निरुक्ति और अनुयोगके द्वारा किया गया हो उसे अतिशयित कहते हैं । आचार्य अर्थात् सूत्रके अर्थका व्याख्यान करने वाले व्याख्याताओंमें दर्शन अर्थात् मतभेद देखा जाता है । कोई व्याख्याता निक्षेप द्वारा ही सूत्रके अर्थका उपपादन करते हैं। अन्य व्याख्याता नैगम आदि विभिन्न नयोंके द्वारा सूत्रार्थका कथन करते हैं। कुछ अन्य सत् आदि अनुयोगोंका उपन्यास करके सूत्रार्थका कथन करते हैं। 'तु' शब्द पादपूतिके लिये अथवा अवधारणके लिये है। आचार्य दर्शनसे ही सूत्र और अर्थका स्थिरीकरण होता है और अतिशयित अर्थकी प्राप्ति
१. इयं गाथा क्षिप्ता मन्तव्या । २. वस्तुतया विह-आ० मु० । ३. यत्तेन आ० मु० ।
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