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विजयोदया टीका
१८९ रम्यतमे देशे उत्तराभिमुखाः, कृतसिद्धनमस्कृतयः मुकुटादिकं क्रमेण अलंकारादिकं अपनयन्ति । परित्यक्तोभयसकलग्रंथाः परिगृह्णन्ति योगत्रयेण रत्नत्रयमित्थंभूतं च परिनिष्कमणं पश्यतः ।
‘णाणुप्पत्ति' ज्ञानोत्पत्तियितेऽवबुध्यते सकलमर्थयाथात्म्यमनेनेति ज्ञानं इति केवलमुच्यते । तस्योत्पत्तिरवतारितमोहनीयभाराणां, योगवासराधीश्वरनिर्मूलितज्ञानदृगावरणतमसां, उत्खातान्तरायविषविटपिनां, अपनीतक्रममनपेक्षितकरणचेष्टम पास्तसंशीतिकं, दूरीकृतविपर्यासं केवलमुत्पद्यते । तस्य फलस्य दर्शनाज्जिनप्रणीते मार्गे अपनीतशङ्कादिकलङ्का श्रद्धोत्पद्यते । फलार्थो तद्वत्सु रोचते दृष्टसामर्थ्य इति किं चित्रम् ? ॥१४५।। एवमनियतविहारे दर्शनशुद्धिस्वार्थमुपदर्य परोपकारं स्थिरीकरणं प्रकटयति
संविग्गं संविग्गाणं जणयदि सुविहिदो सुविहिदाणं ।
जुत्तो आउत्ताणं विसुद्धलेस्सो सुलेस्साणं ॥१४६।। 'संविग्गं' संसारभीरुतां । 'जणयदि' जनयति । कः ? 'सुविहिदो' सुचरितो योऽनियतवासः । केषां ? सुविहिदाणं सुचरितानां । 'संविग्गाणं' संविग्नानां । 'जुत्तो' अनशनादिके तपसि युक्तः । 'आजुत्ताणां' योगचाराणां । 'विसुद्धलेस्सो' विशद्धलेश्यः । 'सुलेस्साणं' सुलेश्यानां च । सम्यक चारित्रतपसोः शुद्धलेश्यायां च
उतरते हैं। और उत्तरकी ओर मुख करके सिद्धोंको नमस्कार करते हैं। तथा क्रमसे मुकुट आदि अलंकारोंको उतार देते हैं। अन्तरंग बहिरंग सब परिग्रहको त्यागकर मन-वचन-कायसे रत्नत्रयको स्वीकार करते हैं । इस प्रकारके निष्क्रमणको जो देखता है उसका सम्यग्दर्शन विशुद्ध होता है।
अब केवलज्ञानकी उत्पत्तिका वर्णन करते हैं
जिसके द्वारा समस्त पदार्थो का यथार्थ स्वरूप ज्ञात होता है उसे ज्ञान कहते हैं । यहाँ ज्ञानसे केवलज्ञान कहा है। उसकी उत्पत्ति इस प्रकार होती है जो मोहनीयका भार उतार देते हैं, योगरूपी सूर्यसे ज्ञानावरण और दर्शनावरणरूपी अन्धकारको निर्मूल कर देते हैं और अन्तराय कर्मरूपी विषवक्षको उखाड़ देते हैं उनके क्रमरहित, इन्द्रियोंकी सहायता न लेनेवाला, संशय विपरीततासे दूर केवलज्ञान उत्पन्न होता है । उसके फल के दर्शनसे जिनकथित मार्गमें शंका आदि दोषोंसे रहित श्रद्धा उत्पन्न होती है। जो उस फलके अभिलाषी हैं वे उसकी शक्तिको देखकर यदि उस रत्नत्रयसे युक्त भगवन्तोंमें रुचि करते हैं तो इसमें आश्चर्य क्या है ? ॥१४५।।
इस प्रकार अनियत विहारसे दर्शनविशुद्धिरूप स्वार्थको बतलाकर अब स्थिरीकरणरूप परोपकारको प्रकट करते हैं
गा०–सम्यक् आचार और अनशन आदि तपसे युक्त विशुद्ध लेश्यावाले मुनियोंका अनियतवास सम्यक् आचारवाले, योगके धारी, सम्यक् लेश्यावाले और संसारसे भीत साधुओंमें संसारसे भय उत्पन्न करता है ॥१४६||
__टी०-सम्यक चारित्र, सम्यक्तप और शुद्धलेश्यामें वर्तमान अनियत विहारी साधुको देखकर सभी सम्यक् चारित्रवाले, सम्यक् तप करनेवाले और शुद्ध लेश्यावाले यतिगण अत्यन्त संसारसे भीत होते हैं। वे मानते हैं कि हम संसारसे वैसे भीत नहीं हैं जैसे यह भगवान् मुनिराज हैं । अत एव हमारा चारित्र और तप सदोष है । अर्थात् सम्यक् आचार, तप और विशुद्ध लेश्या
१. वीतक्र-आ० मु०। २. मत्यस्त-आ० मु० ।
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