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भगवती आराधना दसणशुद्धी इत्येतत्पदव्याख्यानकारिणी गाथा
जम्मणअभिणिक्खवणे णाणुप्पत्ती य तित्थचिण्हणिसिहीओ । पासंतस्स जिणाणं सुविसुद्धं दंसणं होदि ॥१४५॥ .
'जम्मण' जन्माभिनवशरीरग्रहणं । तद्यस्मिन्क्षेत्रे जातं तदिह साहचर्याज्जन्मशब्देनोच्यते । गृहीतशरीरस्य वात्मनो जनन्युदराद्यत्र निष्क्रमणं जातं तद्वा । 'अभिणिक्खवणे' रत्नत्रयाभिमुख्येन गृहाबहिर्गमनं यस्मिन्क्षेत्रे तदिह निष्क्रमणं । 'णाणुप्पत्ती य' केवल ज्ञानावरणक्षयात् सर्वार्थयाथात्म्यग्रहणक्षमं यत्केवलं तदिह ज्ञानमिति गृहीतं । सामान्यशब्दानामपि विशेषवृत्तिः प्रतीतैव । तस्य ज्ञानस्योत्पत्तिर्यस्मिन् क्षेत्रे तदिह साहचर्यात् 'णाणुप्पत्ती य' शब्देनोच्यते । 'तित्थं' चिण्हं । तीर्थमिह समवशरणं गृह्यते । तरन्ति तस्मिन्भव्याः पापविनाशार्थिनः इति । तस्य चिह्नतया स्थिता मानस्तम्भाः । 'णिसिहीओ' निषिधीयोगिवत्तिर्यस्यां भूमौ सा निषिधी इत्युच्यते । एतज्जन्मादिस्थानं श्रुतेन प्रागवगतं । 'पासंतस्स' पश्यतः । कस्य ? 'जिणाणं' जिनानां 'सुविसुद्ध' सुष्ठु विशुद्धं । 'दंसणं' श्रद्धानं । 'होदि' भवति । एतदुक्तं भवति
देशान्तरातिथेः जिनानां जन्मादिस्थानदर्शनान्महती श्रद्धोत्पद्यते। यथा कांचिद्वयाबर्ण्यमानरूपां विलासिनीं परोक्षामगवत्य परस्य वचनोपजाताभिलाषस्य तस्यां दर्शनपथमपजातायां श्रद्धातिशयो जायते इति ।
बसनेके उक्त गुण कहे हैं। इन गुणोंका वर्णन ग्रन्थकार आगे स्वयं करते हैं। टीकाकारने भावनाका अर्थ पुनः पुनः अभ्यास किया है और पं० आशाधरने परीषह सहन किया है । आगे ग्रन्थकारने भी यही अर्थ भावनाका किया है। अभ्याससे ही परीषह सहनकी सामर्थ्य होती है । सम्भवतः इसी भावसे भावनाका अर्थ अभ्यास किया है । लोकमें भावनाका यही अर्थ प्रचलित है ॥१४४॥
'दंसणसुद्धी' इस पदका व्याख्यान करनेवाली गाथा कहते हैं
गा-जिनदेवोंके जन्मस्थान, दीक्षास्थान, केवलज्ञानकी उत्पत्तिका स्थान और समवसरणके चिह्न मानस्तम्भका स्थान निषीधिका स्थान देखनेवालेके सम्यकपसे निर्मल सम्यग्दर्शन होता है ॥१४५||
टी.-नये शरीरके ग्रहण करनेको जन्म कहते हैं। वह जन्म जिस क्षेत्रमें हुआ, जन्मके साहचर्यसे यहाँ उस स्थानको जन्म शब्दसे कहा है । अथवा शरीर ग्रहण करनेवाले आत्माका माताके पेटसे निकास जहाँ हुआ वह जन्म है। रत्नत्रय धारण करनेकी भावनासे घरसे बाहर जाना जिस क्षेत्रमें हआ उसे निष्क्रमण कहा है। केवलज्ञानावरणके क्षयसे सब पदार्थो के यथार्थस्वरूपको ग्रहण करने में समर्थ केवलज्ञानको यहाँ ज्ञान शब्दसे ग्रहण किया है; क्योंकि सामान्यवाची शब्दोंकी भी विशेषमें प्रवृत्ति प्रसिद्ध ही है। यहाँ तीर्थसे समवसरणका ग्रहण किया है। जिसमें पापके विनाशके इच्छुक भव्य जीव तिरते हैं वह तीर्थ है। उस समवसरणके चिह्न मानस्तम्भ हैं। निषिधि अर्थात् योगिवृत्ति जिस भूमिमें हो उसे निषिधी कहते हैं। श्रुतसे पहले जाने हए जिनदेवके इन जन्मादि स्थानोंको जो देखता है उसका श्रद्धान सुविशद्ध होता है। देशान्तरमें भ्रमण करनेवालेके जिनदेवोंके जन्मादि स्थानोंको देखनेसे महती श्रद्धा उत्पन्न होती है, जैसे किसी सुन्दर नारीको वर्णनके द्वारा परोक्षरूपसे जानकर दूसरेके कथनसे उसे देखनेकी इच्छा होती है और उसे साक्षात् देखनेपर विशेष श्रद्धा होती है।
अथवा जब तीर्थंकर जन्म लेते हैं तब अनियत विहार करने वाला यति तीन ज्ञानके धारी
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