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विजयोदया टीका
प्रकरेणानव रतमर्च्यमानपादपीठाः, देवकुमारोपनोयमानोपायनविलोकनैकव्यग्राः, मनुजभोगाग्रेसरं सुखमखेदेनानुभवन्ति । अपरेऽपि मण्डलीकमहामण्डलीकपदमुपगताः ।
पुनस्तीर्थ करनामकर्मोदयात् चारित्रमोहक्षयोपशमप्रकर्षानुगतादनादिकालावलग्नस्वपरकर्म रजोविधूननाववद्धकक्ष्या इत्थं मनः प्रणि 'दधति - केयं मोहस्य महत्ता येनास्मानप्यध्यक्षीक्रियमाणदुरन्तसंसारसरिदधिपदुःखावर्तान् प्रवर्तयत्यारम्भपरिग्रहयोः । अणिमाद्यष्टगुणसंपत्कं, अपदमापदां, अभिलाषस्याप्यविषयम्, अपरामराणां कुशाग्रीयबुद्धीनामपि बलभिदामगोचरं वचसामप्रत्यूहं अपराधीनं, अनास्वादितान्यूनतारसं, अहमिद्रसुखं चिरतरमनुभूतवतामस्माकं केयमुत्कण्ठा मनुजभोगसंपदि, खलजनमंत्रीव विचित्रदुःखानुबंधविधानोद्यतायां चलायां विपुण्यसमितिरिव परायत्तवृत्तौ कुकविकृतिरिवाल्पार्थ संग्रहायां, दूरभव्यस्य मुक्तिपदवीगतिरिव अनेकप्रत्यूहप्रतिहतायां अनन्तकालपरिभुक्तायां इति ।
तदैव च ब्रह्मलोकान्तावासादधिगतलौका न्तिकव्यपदेशाः शङ्खावदाततनवः, स्वावधिज्ञानलोचनेनावलोक्य स्वपरोत्तारणाबद्धपरिकरतां जिनानां महदिदं कार्यं अनेकभव्यानुग्रहकरं भगवता प्रारब्धं, अस्माभिरपि एतदनुमन्तव्यं । पूज्यपूजाव्यतिक्रमश्च स्वार्थभ्रं शकारीति सुरपथादवतीर्य स्वामिनः पुरस्तात्सबहुमानमवस्थिता एवं विज्ञापयंति —
तरह वे मनुष्यों को प्राप्त भोगोंसे होने वाले सर्वोत्कृष्ट सुखको बिना किसी खेदके भोगते हैं, अन्य कुछ जिनदेव मण्डलीक, महामण्डलीक आदि राजपदोंको प्राप्त होते हैं ।
पुनः तीर्थंकर नामकर्मके उदयसे और चारित्र मोहके क्षयोपशमके प्रकर्ष से अनादिकालसे लगी हुई अपनी और दूसरोंकी कर्मरूपी धूलिको दूर करनेमें कमर कसकर वे इस प्रकार मनमें विचारते हैं - यह मोहकी कैसी महत्ता है कि दुरन्त संसार समुद्र के दुःखरूपी भँवरोंको प्रत्यक्ष अनुभव करने वाले हम जैसोंको भी आरम्भ और परिग्रहमें फँसाता है । हमने चिरकाल तक अहमिन्द्रका सुख भोगा है जो अणिमा आदि आठ ऋद्धियोंसे सम्पन्न होता है, जिसमें कभी कोई आपत्ति नहीं आती, जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता, अन्य देव और कुशाग्र बुद्धिशाली इन्द्रों को भी वह सुख प्राप्त नहीं है, वचन के अगोचर है, अपराधीन है, उसमें कभी कमी नहीं होती । ऐसा अहमिन्द्र पदका सुख चिरकाल तक भोग चुकनेपर हमारी यह मनुष्यकी भोगसम्पदामें उत्कण्ठा कैसी ? यह भोग सम्पदा दुष्टजनकी मैत्रीकी तरह अनेक दुःखोंकी परम्पराको उत्पन्न करने वाली है, चंचल है, पाप पुण्यकर्मके समान पराधीन है, जेसे कुकविकी रचना में अल्पसार होता है वैसे ही इस भोगसम्पदामें भी सार नहीं है । जैसे दूर भव्य के मोक्ष गमनमें अनेक बाधाएँ रहती हैं वैसे ही इस भोगसम्पदा में अनेक बाधाएँ रहती हैं और हमने इसे अनन्तकाल भोगा है । उसी समय ब्रह्मलोक स्वर्गके अन्त में रहनेसे लौकान्तिक नामधारी देव, जिनका शरीर शंखके समान श्वेत होता है, अपने अवधिज्ञान रूपी चक्षुसे देखते हैं कि जिनदेव स्वयंको और दूसरोंको संसार समुद्रसे पार उतारनेके लिये एकदम तत्पर हैं तो विचारते हैं- भगवान्ने अनेक भव्य जीवों पर अनुग्रह करने वाला यह महान् कार्य करनेका बीड़ा उठाया है, हमें भी इसकी अनुमोदना करनी चाहिए । तथा पूज्य पुरुषों की पूजा न करना भी स्वार्थका घातक है । ऐसा विचार स्वर्गसे उतरकर भगवान् के सम्मुख बड़े आदर के साथ उपस्थित हो, इस प्रकार निवेदन करते हैं
१. प्रतिदधति - आ० मु० ।
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२. कथं मोहस्य बलवत्ता - आ० मु० |
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