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भगवती आराधना
'इय' एवं व्यावणितरूपेण । 'दुट ठयं दृष्टकं दृष्टं । 'मणं' मनो। 'जो वारेदि' यो निवारयति रागादिभ्यः । 'परिठ्ठवेदि य' प्रतिष्ठापयति च श्रद्धानपरिणामादौ । 'अकंप' निश्चलं। क्रियाविशेषणमेतत् । तस्स सामण्णं होदि वक्ष्यमाणेन संबन्धः । 'सुभसंकप्पपयारं जो कुणदि तस्स सामण्णं होदित्ति' संबंधनीयं । शुभः संकल्पः तस्मिन्प्रकृष्टश्चारो गमनं प्रवृत्तिर्यस्य मनसस्तच्छभसंकल्पप्रचारं मनो यः करोति । 'सज्झायसण्णिहिद' च जो कुदि तस्स सामण्णं इति संबन्धते । सम्यगध्ययनं स्वाध्यायः द्रुतविलंबितादिदोषरहितत्वं अर्थव्यञ्जनशुद्धिश्च सम्यक्त्वं । स पुनः पञ्चप्रकारः वाचनाप्रश्नानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशभेदेन ।
प्रश्नस्य कथं स्वाध्यायता? प्रश्नो हि ग्रन्थेऽर्थे वा संशयच्छेदाय इत्थमेवैतदिति निश्चितार्थबलाधानाय वा प्रच्छनं । न हि यः पृच्छति ग्रन्यमर्थ वा सोऽधीते ? अध्ययनप्रवृत्त्यर्थत्वात् प्रश्नेऽध्ययनव्यपदेशः इन्द्रप्रतिमार्थे दारुणि इन्द्रव्यपदेश इव । अथवा किर्मिदमेवं पठितव्यमिति अधीत एव ग्रन्थे संदिहानः । अर्थसंदेहेऽपि किमस्य वाक्यस्य पदस्य वायमर्थः इति । यद्वाप्यते एवं निश्चितबलाधानार्थे प्रश्ने योज्यम् ।
अनुप्रेक्षा कथं ख्वाध्यायः ? अधिगतार्थस्य मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा अन्तर्जल्परूपमध्ययनमस्त्येव तत्रापीति मन्यते ।
घोषपरिशुद्धं श्रुतं परावर्त्यमानं आम्नायः स्वाध्यायो भवत्येव ।
आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी, निवेदनी चेति कथाश्चतस्रस्तासामुपदेशो धर्मोपदेशः स च स्वाध्यायः । एतस्मिन्स्वाध्याये सम्यक निहितं निक्षिप्तं मनो यः करोति इत्यर्थः ।
टो-जो ऊपर कहे अनुसार रागादिसे दुष्ट मनको हटाता है और श्रद्धानादिमें निश्चलरूपसे मनको. स्थापित करता है उसके सामण्ण होता है इस प्रकार आगेके साथ सम्बन्ध लगाना चाहिए। शुभ संकल्पमें प्रकृष्ट चार प्रचार अर्थात् प्रवृत्ति जिसके मनकी है अर्थात् जो मनको शुभ संकल्पोंमें लगाता है उसके सामण्ण होता है। सम्यक् अध्ययनको स्वाध्याय कहते हैं । जल्दी पढ़ना या देरसे धीरे-धीरे पढ़ना इत्यादि दोषोंसे रहित होना तथा अर्थशुद्धि और वचनशुद्धिका होना सम्यक्पना है। उस स्वाध्यायके पाँच भेद हैं-वाचना, प्रश्न, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश । प्रश्न कैसे स्वाध्याय है यह बतलाते हैं-ग्रन्थ अथवा अर्थके सम्बन्धमें संशयको दूर करनेके लिए अथवा निश्चित अर्थको पुष्ट करनेके लिए पूछना प्रश्न है। जो ग्रन्थ या अर्थको पूछता है वह अध्ययन नहीं करता, किन्तु ऐसा करना अध्ययनकी प्रवृत्तिके लिए होता है इससे प्रश्नको अध्ययन कहा है। जैसे इन्द्रकी प्रतिमा बनानेके लिए लाये गये काष्ठको इन्द्र कहा जाता है । अथवा 'क्या इसे इस प्रकार पढ़ना चाहिए' इस तरह पढ़े हुए ही ग्रन्थमें सन्देह करना, तथा अर्थमें सन्देह होनेपर भी 'क्या इस पद अथवा वाक्यका यह अर्थ है' इस प्रकार पुछना स्वाध्यायका कारण होनेसे स्वाध्याय है। इसी प्रकार निश्चित अर्थको दृढ़ करनेके लिए भी प्रश्नकी योजना करनी चाहिए। अनुप्रेक्षा कैसे स्वाध्याय है ? जाने हुए अर्थका मनसे अभ्यास करनेको अनुप्रेक्षा कहते हैं। इसमें भी अन्तर्जल्परूप अर्थात् मन ही मनमें अध्ययन होता ही है। शुद्ध उच्चारणपूर्वक श्रुतका पाठ करना आम्नाय है। यह तो स्वाध्याय है ही। आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निवेदनी इस प्रकार चार कथाएँ हैं। उनका उपदेश धर्मोपदेश है। यह भी स्वाध्याय है । इस स्वाध्यायमें जो मनको सम्यक्पसे लगाता है उसके सामण्ण होता है।
१. तहि यदृच्छावग्रहमर्थ वा-आ० मु०।
२. द्रव्यव्य-आ० मु० ।
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