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विजयोदया टीका
१७७ जस्स य कदेण जीवा संसारमणंतयं परिभमंति ।
भीमासुहगदिबहुलं दुक्खसहस्साणि पावंता ।।१३९।। 'जस्स य' यस्स च । 'कदेण' करोति क्रियासामान्यवाची इह चेष्टावृत्तिर्गृहीतस्तेनायमर्थः याय मनसश्चेष्टितेन जीवाः संसारं पञ्चविधं परावर्त परिभ्रमन्ति । 'अणंतगं' अनन्तप्रमाणावच्छिन्न । 'भीमासुहगदिबहुलं' भयावहाशुभनरकादिगतिप्रचुरं । 'दुक्खसहस्साणि' शारीरागन्तुकमानसस्वाभाविकाख्यानि प्रत्येक मनेकविकल्पानि । 'पावंता' प्राप्नुवन्तो जीवाः । एतेन चतुर्गतिपरावर्तमूलतादोषः प्रकटितः ।।१३९।।
जम्हि य वारिदमेत्ते सव्वे संसारकारया दोसा ।
णासंति रागदोसादिया हु सज्जो मणुस्सस्स ।।१४०।। 'जम्हि' यस्मिश्च मनसि । 'वारिदमेत्ते' वारित एव मात्रग्रहणं वारणादन्यं निराकर्तुमुपात्तं । मनो निवारणादेव 'रागदोसादिया' रागद्वेषादयः । 'णासंति खु' नश्यन्त्येव । 'सज्जो' सद्यः तदानीमेव । 'संसारकारया' परावर्तपञ्चकस्य संपादनोद्यताः ॥१४०।।
इय दुट्ठयं मणं जो वारेदि पडिहवेदि य अकंपं । सुहसंकप्पपयारं च कुणदि सज्झायसणिहिदं ॥१४१।।
चिकने शरीर वाली मछलीको पकड़ना कठिन है वैसे ही मनको रोकना बहुत कठिन है। इससे 'दुरवग्रहता' नामक दोष कहा ॥१३८।।
___ गा०—जिस मनकी चेष्टासे जीव हजारों दुःख भोगते हुए भयंकर अशुभ गतियोंसे भरे हुए अनन्त संसारमें भ्रमण करते हैं ।।१३९।।
टो०-गाथामें आया 'कदेण' शब्द करने रूप क्रियासामान्यका वाची है किन्तु यहाँ उसका अर्थ चेष्टा लिया है । अतः ऐसा अर्थ होता है कि जिस मनकी चेष्टासे जीव पाँच परावर्तन रूप संसारमें भ्रमण करते हैं, वह संसार अनन्त प्रमाण वाला है और उसमें भयानक नरक आदि अशुभ गतियोंका बाहुल्य है। तथा वे जीव शारीरिक, आगन्तुक, मानसिक स्वाभाविक आदि अनेक प्रकारके दुःखोको पाते हैं। इससे 'चतुर्गतिमें भ्रमणका मूल' दोष प्रकट किया ।।१३९॥
गा०-जिस मनके निवारण करने मात्रसे मनुष्यके सब संसारके कारक राग द्वेष आदि दोष शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ।।१४०॥
टी--'वारिदमेत्ते' में 'मात्र' पदका ग्रहण निवारणसे अन्यका निराकरण करनेके लिये किया है । अर्थात् अन्य कुछ न करके मात्र मनको रोका जाये तो पाँच परावर्तन रूप संसारके कारण सब दोष तत्काल नष्ट हो जाते हैं ।।१४०॥
गा०-उक्त प्रकारसे जो दुष्ट मनको रागादिसे निवारण करता है, और निश्चलरूपसे श्रद्धानरूप परिणामादिमें स्थापित करता है। तथा शुभसंकल्पोंमें मनको प्रवृत्त करता है और स्वाध्यायमें मनको लगाता है उसके सामण्ण-समताभाव होता है ।।१४१।।
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