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भगवती आराधनां शुद्धिरिव । वैमनस्याभावो ‘णिज्झंज्झा' विमनस्को भवति विनयहीनो गुर्वादिभिरननुगृह्यमाणः ।
'अज्जवं' आर्जवं नाम ऋजुमार्गवृत्तिः, शास्त्रनिर्दिष्टं वा चरणं ऋजु । 'मद्दव' अभिमानत्यागो माहवं परगुणातिशय श्रद्धानेन, तन्माहात्म्यप्रकाशनेन च विनयेन च अभिमाननिरासः कृतो भवति । लाघवं विनीतो हि आचार्यादिषु न्यस्तभरो भवतीति लाघवं विनयमूलं । 'भत्ती' विनीतस्य हि सर्वजनो विनीतो भवति इति विनयहेतुका भक्तिः । 'पल्हादकरणं' च प्रकृष्टं सुखं प्रकृष्टसुखं प्रहलादस्तस्य करणं क्रिया प्रह लादकरणमित्युच्यते । येषां विनयः क्रियते तेषां सुखं संपादितं भवति इति परानुग्रहो गुणः आत्मनो वा प्रह लादकरणं । कथमविनीतो हि निर्भर्त्सनादिभिरनवरतं दुःखितो भवति । विनीतो हि निर्भर्त्सनाद्यभावात सुखी भवति । बाधाभावे एव सुखव्यवहारो लोके ॥१३२॥
कित्ती मेत्ती माणस्स भंजणं गुरुजणे य बहुमाणो ।
तित्थयराणं आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा ॥१३३।। "कित्ती' विनीतोऽयमिति संशब्दनं कीर्तिः । 'मेत्ती' परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलापो मैत्री। परस्य दुःखं नैवेच्छति विनीत इति । 'माणस्स भंजणं' मानस्य भङ्गः ।
ननु माईवशब्देनाभिहित एव मानभङ्गः पूर्वसूत्रे ततः पौनरुक्त्यं इति । उच्यते 'माणस्स भंजणं 'परस्स' इति शेषः एकस्य विनयदर्शनात् परोऽपि स्वं मानं जहाति । गतानुगतिको हि प्रायेण लोकः । कीचड़के दूर होनेसे जलादिकी शुद्धि होती है। :णिज्झंझा' का अर्थ वैमनस्यका अभाव है। जो विमनस्क होता है अर्थात् जिसका मन स्थिर नहीं होता वह विनय हीन होता है। गुरु उसपर अनुग्रह नहीं करते । ऋजु मार्ग पर चलनेको आर्जव कहते हैं और शास्त्रमें कहे गये आचरणको ऋजु कहते हैं। मार्दवका अर्थ अभिमानका त्याग है। दूसरेके गुणातिशयमें श्रद्धा करनेसे और उनके माहात्म्यको प्रकट करनेसे तथा विनय करनेसे अभिमानका निरास स्वयं हो जाता है । जो विनीत साधु होता है वह अपना भार आचार्यपर सौंपकर लघु हो जाता है अर्थात् आचार्य स्वयं उसकी चिन्ता करते हैं अतः लाघव का मूल विनय है। जो विनीत होता है सभी मनुष्य उसकी विनय करते है अतः विनय भक्तिका कारण है। प्रकृष्ट सुखको प्रहलाद कहते हैं उसका करना प्रहलादकरण है। जिनकी विनय की जाती है उनको सुख होता है इस प्रकार दूसरोंको प्रसन्न करना विनयका गुण है। अपनेको प्रसन्न करना भी विनयका गुण है क्योंकि जो अविनयी होता है सब उसका तिरस्कार आदि करते हैं अतः वह निरन्तर दुखी रहता है। और जो विनयी होता है उसका कोई तिरस्कार आदि नहीं करता, अतः वह सुखी रहता है क्योंकि लोकमें बाधाके अभावको ही सुख कहा जाता है ॥१३२॥
गा०-कीत्ति, मित्रता, मानका विनाश, गुरुजनोंका बहुमान, और तीर्थङ्करोंकी आज्ञाका पालन और गुणोंकी अनुमोदना ये विनयमें गुण हैं, ॥१३३।।
___टी०-यह विनयी है ऐसा कहना कीर्ति हैं। विनयीकी कीर्ति होती है। दूसरोंको दुःख न होनेकी भावना मैत्री है ! जो विनीत होता है वह दूसरोंको दुःख नहीं चाहता । और मानका भंग होता है।
शङ्का-पूर्व गाथामें मार्दव शब्दसे मानभंगको कहा ही है। पुन: कहनेसे पुनरुक्तता दोष आता है ?
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