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भगवती आराधना विनयाभावे दोषमाचष्टे-दोषप्रकटनेन भयमुत्पाद्य विनये दृढ़तां कर्तुम्
विणएण विप्पहूणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा ।
विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं ॥१३०॥ 'विणएण विप्पहूणस्य' विनयरहितस्य यतेः । 'हवइ सिक्खा णिरत्थिया सव्वा' सर्वशिक्षा निष्फला। कि शिक्षायाः फलं इत्यारेक्य आह-'विणओ सिक्खाए फलं' व्यांवर्णितः पञ्चप्रकारो विनयः शिक्षायाः फलं । तस्य विनयस्य किं फलं ? पुरुषार्थो हि फलमित्यांशंक्याह 'विणयफलं सन्नकल्लाणं' सर्वमभ्युदयनिःश्रेयसरूपं कल्याणस्थानमानैश्वर्यादिकं इन्द्रियानिन्द्रियसुखं च ।।१३०।।।
विणओ मोक्खदारं विणयादो संजमो तवो णाणं ।
विणएणाराहिज्जा आयरिओ सव्वसंघो य ॥१३१।। 'विणओ मोक्खहार' यथा द्वारमभिमतदेशप्राप्तेरुपायस्तद्वत मोक्षस्य निरवशेषकर्मापायस्य प्राप्तावुपायो विनय इति मोक्षद्वारमित्युच्यते । निरूपिते पञ्चप्रकारे विनय स्यत्येवे (?) कर्मापायो भवतीति 'विणयादो' विनयाद् हेतोः 'संजमो' संयमो भवति । ज्ञानादिविनयेषु अनवरतं प्रवर्तमानो ह्यसंयम परिहत्तुं शक्नोति नापरः । इन्द्रियकषाययोरप्रणिधानं यदि न स्यात् कथमिन्द्रियसंयमःप्राणिसंयमो वा भवति ? 'तवो तपः ज्ञाना
विशेषार्थ-पं० आशाधरने अपनी टीकामें 'रादिणिग ऊमरादिणिगेसु' पाठ रखा है'रादिणिगा' अपनेसे रत्नत्रयसे अधिक या समान साधु । ऊमरादिणिगा-अपनेसे हीन रत्नत्रय वाले, ऐसा अर्थ किया है। और लिखा है कि अन्य टीकाकार इसका अर्थ इस प्रकार करते हैंरातिका और अवम रातिका अर्थात् जो अपनेसे तपमें एक रात आदि बड़े या छोटे हैं।
दोष प्रकट करनेसे भय उत्पन्न कराकर विनयमें दृढ़ करनेके लिये विनयके अभावमें दोष कहते हैं
गा०—विनयसे रहित साधुकी सब शिक्षा निष्फल होती है। शिक्षाका फल विनय है । विनयका फल सब कल्याण है ॥१३०॥
दी-विनय रहित साधुकी सब शिक्षा निष्फल है; क्योंकि पूर्व में कही पाँच प्रकार की विनय शिक्षाका फल है और उस विनयका फल सर्व कल्याण है। सब लौकिक अभ्युदय और मोक्ष रूप कल्याण उसका फल है अर्थात् विनयसे मान, ऐश्वर्य आदि तथा इन्द्रिय जन्य और अतीन्द्रिय सुख मिलता है ॥१३०॥
गा०-विनय मोक्षका द्वार है। विनयसे संयम, तप और ज्ञानकी प्राप्ति होती है। विनयसे आचार्य और सर्व संघ अपने वशमें किया जाता है ॥१३१॥
टी०- जैसे द्वार इष्ट देशकी प्राप्तिका उपाय होता है उसी तरह समस्त कर्मोंके विनाश रूप मोक्षको प्राप्ति का उपाय विनय है इस लिये मोक्षका द्वार कहा है। पूर्व में कही पाँच प्रकार की विनयके होनेपर ही कर्मोंसे छुटकारा होता है । विनयसे ही संयम होता है। क्योंकि जो पाँच प्रकारकी विनयोंमें सदा लगा रहता है वही असंयमको त्यागने में समर्थ होता है, जो विनयोंमें प्रवृत्ति नहीं करता वह असंयमको नहीं छोड़ सकता। यदि इन्द्रियों और कषायोंकी ओरसे विमुखता न हो तो कैसे इन्द्रिय संयम या प्राणिसंयम हो सकता है। तथा ज्ञानादिकी विनयसे
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