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विजयोदया टीका
१७१
दिविनयशून्यं अनशनादिकं न कर्म तपतीति विनयहेतुकं तपसः तपस्त्वमिति मत्वोच्यते विनयात्तप इति । 'गाणं' ज्ञानं च विनयहेतुकं । अविनीतो हि ज्ञानं न लभते । 'विणएण' विनयेन । 'आराधिज्जदि' आराध्यते स्ववशे स्थाप्यते । 'आयरिओ' आचार्य: । 'सव्वसंघो य' सर्वश्च संघः ॥ १३१ ॥
आयारजीवकष्पगुणदीवणा अत्तसोधि णिज्झंझा ।
अज्जव मद्दव लाघव भत्ती पल्हादकरणं च ॥ १३२ ॥
'आयारजीदक पगुणदीवणा' रत्नत्रयाचरणनिरूपणपरतया प्रथममङ्गमाचारशब्देनोच्यते । आचारशास्त्रनिर्दिष्टः क्रमः आचारजीदशब्देन उच्यते । कल्प्यते अभिधीयते येन अपराधानुरूपो दण्डः स कल्पस्तस्य गुणः उपकारस्तेन निर्वर्त्यत्वात् । अनयोः प्रकाशनं 'आचारजोदकप्पगुणदीवणा' । एतदुक्तं भवति-कायिको वाचिकश्च विनयः प्रवर्तमानः आचारशास्त्रनिर्दिष्टं क्रमं प्रकाशयति । कल्पोऽपि विनयं विनाशयतो दण्डयतो विनयं निरूपयति । तद्भूयादयं प्रवर्त्यते इति कल्पसंपाद्य उपकारः प्रकटितो भवति इति केषांचिद् व्याख्यानं । अन्ये तु वदन्ति । कल्पयते इति कल्प्यं योग्यं कल्प्या गुणाः कल्प्यगुणाः आचारक्रमस्य कल्प्यानां च गुणानां प्रकाशनं 'आचारजीदकल्पगुणदीवणाशब्देनोच्यते' श्रृताराधना चारित्राराधना च कृता भवतीत्येतदाख्यातं अनेनेति ।
'अत्तसोधिणिज्झंझा' विनयपरिणतिरात्मशुद्धेर्ज्ञानदर्शनवीतरागात्मिकाया निमित्तमिति आत्मशुद्धिरुच्यते । अथवा ज्ञानादिविनयपरिणतिः कर्ममलापायलम्यत्वात् शुद्धिरुच्यते आत्मनः पङ्कापायलम्या जलादि
शून्य अनशन आदि कर्मको नष्ट नहीं कर सकते । इसलिये तपमें तपपनाका कारण विनय है ऐसा मानकर 'विनयसे तप होता है, कहा है । तथा ज्ञानका कारण भी विनय है । अविनीत पुरुष ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता । और विनयसे आचार्य तथा समस्त संघ अपने वश में हो सकता है ॥ १३१ ॥
गा०—आचारके क्रम तथा कल्प्य गुणोंका प्रकाशन, आत्मशुद्धि, वैमनस्यका अभाव, आर्जव, मार्दव, लघुता, भक्ति और अपने और दूसरोंको प्रसन्न करना, ये विनय के गुण है ॥१३२॥
टी० - रत्नत्रयके आचरणका कथन करनेमें तत्पर होनेसे पहले अंगको आचारांग कहते हैं | और आचार शास्त्रमें कहे गये क्रमको 'आचारजीत' शब्दसे कहते हैं । 'कल्प्यते' अर्थात् जो अपराधके अनुरूप दण्डको कहता है वह कल्प है उसका गुण अर्थात् उपकार । इन दोनोंका प्रकाश 'आचारजीदकप्पगुणदीवणा ' है । इसका अभिप्राय यह है कि कायिक और वाचिक विनयके करनेसे आचारशास्त्रमें कहे गये क्रमका प्रकाशन होता है । कल्प भी विनयको न मानने वाले साधुको दण्डका विधान करता है अतः विनयका ही निरूपण करता है । उसके भयसे साधु विनय करता है इस प्रकार कल्पके द्वारा किया जाने वाला उपकार प्रकट होता है । ऐसा किन्हीं का व्याख्यान है । अन्य टीकाकार कहते हैं
'कल्प्यते इति कल्प्यं' अर्थात् योग्य । कल्प्य गुणोंको कल्प्यगुण कहते हैं । आचारके क्रमका और कल्प्य गुणोंका प्रकाशन ' आयारजीद कल्प गुण दोवणा' शब्दका अर्थ है । इससे यह कहा है कि विनय करने से श्रुतकी आराधना और चारित्र की आराधना होती है । तथा विनय करना आत्म शुद्धिका अर्थात् ज्ञान दर्शन और वीतराग रूप परिणतिका निमित्त है । अथवा ज्ञानादि विनय रूप परिणति कर्ममलके विनाशसे प्राप्त होती है अतः उसे आत्माकी शुद्धि कहते हैं । जैसे
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