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भगवती आराधनां
आसितुमिच्छति इत्यवगम्य निरूप्य चक्षुषा प्रमार्जनयोग्यं न वेति पश्चात्प्रतिलेखनेन लाघवमाद्दवादिगुणान्वितेनातिशनकैः प्रमार्ण्य भूभागं पीठादिकं च आसनदानं । ' उपकरणदानं' ज्ञानसंयमो उपक्रियेते अनुगृह्येते येनतदुपकरणं पुस्तकादि ग्रहीतुमभिप्रेतं तस्य दानं । अथवा उद्गमोत्पादनेषणादिदोषे रदुष्टस्य सुप्रतिलेखनस्यात्मनां लब्धस्य उपकरणस्य दानं । 'ओगासवाणं च' अवकाशदानं च शीतार्त्तस्यावस्थित निवातावकाशदानं, उष्णादितस्य शीतलस्थानदानं ग्रामनगरादिस्वावासस्थानदानं वा ॥१२२॥
परूिव कायसं फासणदा पडिरूवकालकिरिया य । पेणकरणं संथारकरणमुवकरणपडि लिहणं ॥ १२३॥
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'पडिरूव कायसं फासणदा' कायस्य संस्पर्शनं कायसंस्पर्शनं । प्रतिरूपं कायस्य संस्पर्शनं प्रतिरूपकायसंस्पर्शनं तस्य भावः प्रतिरूपकायसंस्पर्शनता । गुर्वादिशरीरानुकूलं संस्पर्शनमिति यावत् ।
अयं चात्र क्रमः — मनागुपसृत्य स्थित्वा तदीयेन पिच्छेन कार्यं त्रिः प्रमृज्य आगंतुकजीववाधापरिहारोपयुक्तः सादरः स्वबलानुरूपं यावद्यादृग्मद्द 'नसहस्तावदेव मद्दनं कुर्यात् । उष्णाभितप्तस्य यथा शैत्यं भवति तथा स्पृरोच्छीतार्तस्य यथौष्ण्यं तथा ।
'पडिवकालकिरिया य' कालकृतोऽवस्थाविशेषो वालत्वादिरिह कालशब्देनोच्यते कालप्रभवत्वात् ।
संघट्टन न हो इस प्रकार शयन करे। आसनदान — गुरु बैठना चाहते हैं ऐसा जानकर चक्षुसे देखे कि प्रमार्जनके योग्य है या नहीं ? पीछें लाघव कोमलता आदि गुणोंसे युक्त पीछीसे अत्यन्त धीरेसे भूभाग और आसन आदिको पोंछ देवे । उपकरणदान - जिससे ज्ञान और समय का उपकार हो उसे उपकरण कहते हैं । गुरु पुस्तक आदि चाहते हों तो उन्हें देना । अथवा उद्गम उत्पादन आदि दोषोंसे रहित उपकरण अपनेको मिला हो तो उसे देना उपकरणदान है । अवकाशदान- शीतसे पीड़ितको वायु रहित स्थान देना और गर्मीसे पीड़ितको शीतल स्थान देना, अथवा ग्राम नगर आदिमें अपना आवास स्थान देना ॥ १२२ ॥
विशेषार्थ -नीचा स्थानका मतलव है गुरु जहाँ बैठे या खड़े हों उसके वाम भागमें या पीछे बैठना । और नीचे गमनका मतलब है - गुरुके बैठे रहते या खड़े रहते स्वयं गमन करते शिष्यका गुरुसे दूर रहते हुए अपने हाथ पैरको निश्चल रखते हुए और शरीर को नम्र करके
गमन करना ।
गा०-- गुरु आदिके शरीर के अनुकूल स्पर्शन, बालपने आदि अवस्थाके अनुरूप वैयावृत्य करना, और गुरु आदिकी आज्ञाका पालन करना, तृण आदिका संथरा करना, उपकरणों की प्रतिलेखना करना ॥ १२३॥
टी० - काय के स्पर्शनको कायस्पर्शन कहते हैं । प्रतिरूप कायका स्पर्शन प्रतिरूप काय स्पर्शन है और उसका भाव प्रतिरूपकाय स्पर्शनता है अर्थात् गुरु आदिके शरीर के अनुकूल स्पर्शन करना । इसका क्रम इस प्रकार है - गुरुसे थोड़ा हटकर बैठे और उनकी पीछीसे तीन बार उनके शरीरका प्रमार्जन करके आगन्तुक जीवको किसी प्रकारकी बाधा न हो इस प्रकार सादर अपने बलके अनुरूप जितने काल तक और जितना मर्दन गुरु सह सके उतना ही मर्दन करे। यदि गुरु गर्मी से तप्त हों तो शीतपना जिस प्रकार संभव उस प्रकार स्पर्श करे और यदि शीतसे पीड़ित हों तो गर्मी पहुँचाना जैसे हो उस प्रकार स्पर्श करे । तथा 'प्रतिरूपकाल क्रिया' में काल शब्दसे
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