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भगवती आराधना
भत्ती तवोधिगंमि य तवम्मि य अहीलणा य सेसाणं । एसो तवम्मि विणओ जहुत्तचारिस्स साधुस्स ॥ ११९ ॥
'भत्ती' भक्तिः । वदननिरीक्षणादिप्रसादेन अभिव्यज्यमानोऽन्तर्गतोऽनुरागः । 'तवोऽधिगम्मि' तपो ऽधिके च 'तवम्मि' य सम्यक्तपसि तद्वति च, भक्तिरिति यावत् । तच्च सम्यग्ज्ञानदर्शनसंयमानुगतं । 'अहीलणा य' अपरिभवश्च । 'सेसाणं' शेषाणां । तपसा न्यूनानामात्मनः ज्ञानश्रद्धानच रणवतां परिभवे ज्ञानादीन्येव परिभूतानि भवति । ततो बहुमानाभावो ज्ञानातिचारः, वात्सल्याभावो दर्शनातिचारः । सातिचारज्ञानदर्शनस्य चारित्रममशुद्ध इति, महाननर्थ इति भाव: । 'एसो' एष व्यावणितपरिणामसमूह उत्तरगुणोद्योगादिकः । 'तवम्मि' तपसि तपोविषयः । 'विणओ' विनयः । 'जहुत्तचारिस्स' श्रुतनिरूपितक्रमेणाचरतः । 'साधुस्स' साधोः ।। ११९ ।।
उपचारविनयनिरूपणार्थीत्तरगाथा -
काइयवाइयमाणसिओत्ति तिविधो हु पंचमो विओ । सो पुण सव्वो दुविहो पच्चक्खो चेव पारोक्खो ।। १२० ।।
'काइगवाइगमाण सिगोत्ति' पदसंबंध: । पंचमो विनयस्त्रिप्रकारः कायेन मनसा, वचसा च, निर्वर्त्यते इति । 'सो पुण सव्वो' स पुनस्त्रिप्रकारोऽपि विनयः । 'दुविधो' 'द्विविधः । 'पच्चक्खो चेव' प्रत्यक्षः । 'पारोक्खो' परोक्षश्चेति ॥ १२० ॥
गा०—जो तपमें अधिक हैं उनमें और तपमें भक्ति और जो अपने से तपमें हीन हैं उनका अपरिभव यह श्रुतके अनुसार आचरण करने वाले साधुकी तप विनय है ॥११९||
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टी० - मुखकी प्रसन्नतासे प्रकट होनेवाले आन्तरिक अनुरागको भक्ति कहते हैं । तपसे afari ओर सम्यक् तपमें भक्ति करना । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और संयमके अनुगत तप ही सम्यक् तप है । जो तपमें न्यून है उनका तिरस्कार नहीं करना । जो ज्ञान श्रद्धान और चारित्र से युक्त होनेपर भी अपनेसे तपमें कम हैं, उनका तिरस्कार करनेपर ज्ञानादिका ही तिरस्कार होता है । और ऐसों का बहुमान न करना ज्ञानका अतिचार है । उनमें वात्सल्य न रखना सम्यग्दर्शनका अतिचार है । और जिसका ज्ञान और दर्शन सातिचार है उसका चारित्र अशुद्ध है, इस तरह महान् अर्थ है | यह ऊपर कहा, उत्तरगुणोंमें उद्योग आदि शास्त्रानुसार आचरण करनेवाले साधु की तप विषयक विनय है ॥ ११९ ॥
उपचार विनयका निरूपण करते हैं
गा०
० - पाँचवीं उपचार विनय तीन प्रकारकी है कायिक, वाचनिक और मानसिक । और वह तीनों प्रकार की विनय दो प्रकारकी है प्रत्यक्ष विनय और परोक्ष विनय ॥ १२० ॥
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टी० - पाँचवीं विनय तीन प्रकारकी है जो कायसे, मनसे और वचनसे की जाती है । और ये तीनों प्रकारकी भी विनय दो प्रकारकी है- प्रत्यक्ष और परोक्ष || १२० ||
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