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भगवती आराधना 'स च शरीरनिःस्पृहः, स्थाणुरिवोर्ध्वकायः, प्रलंबितभुजः, प्रशस्तध्यानपरिणतोऽनुन्नमितानतकायः, परीषहानुपसर्गाश्च सहमानः, तिष्ठन्निर्जन्तुके कर्मापायाभिलाषी विविक्ते देशे ।
____ अन्तर्मुहूर्तः कायोत्सर्गस्य जघन्यः कालः, वर्षमुत्कृष्टः । अतिचारनिवृत्तये कायोत्सर्गा बहुप्रकारा भवन्ति रात्रिदिनपक्षमासचतुष्टयसंवत्सरादिकालगोचरातिचारभेदापेक्षया । सायाह्नोच्छ्वास शतकं, प्रत्यूषसि पंचाशत्, पक्षे त्रिशतानि, चतुर्यु मासेषु चतुःशतानि, पंचशतानि संवत्सरे उच्छ्वासानां । प्रत्युषसि प्राणिबधादिषु पंचस्वतीचारेषु अष्टशतोच्छवासमात्रः काल: कायोत्सर्गः कार्यः । कायोत्सर्गे कृते यदि शक्यते उच्छवासस्य स्खलनं वा परिणामस्य उच्छ्वासाष्टकमधिकं स्थातव्यम् ।
उत्थितोत्थितं, उत्थितनिविष्टम्, उपविष्टोत्थितं, उपविष्टनिविष्ट इति चत्वारो विकल्पाः । धर्मे शुक्ले वा परिणतो यस्तिष्ठति तस्य कायोत्सर्गः उत्थितोत्थितो नाम । द्रव्यभावोत्थानसमन्वितत्वादुत्थानप्रकर्षः उत्थितोत्थितशब्देनोच्यते । तत्र द्रव्योत्थानं शरीरं स्थाणवदुवं अविचलमवस्थानं । ध्येयकवस्तुनिष्ठता ज्ञानारव्यस्य भावस्य भावोत्थानं । आर्तरौद्रयोः परिणतो यस्तिष्ठति तस्य उत्थितनिषण्णो नाम कायोत्सर्गः । शरीरोस्थानादुत्थितत्वं शुभपरिणामोद्गतिरूपस्योत्थानस्याभावान्निषण्ण इत्युच्यते । अत एव विरोधाभावो भिन्न
कायत्याग उचित है। तथा वह शरीरसे निस्पृह होकर, स्थाणुकी तरह शरीरको सीधा करके, दोनों हाथोंको लटकाकर. प्रशस्त ध्यानमें लीन हो, शरीरको ऊँचा-नीचा न करके परोषहों और उपसर्गो को सहन करता हुआ, कर्मोको नष्ट करनेकी अभिलाषासे जन्तुरहित एकान्त देशमें ठहरता है।
कायोत्सर्गका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल एक वर्ष है। अतिचारोंको दूर करनेके लिए कायोत्सर्गके रात, दिन, पक्ष, मास, चार मास, वर्ष आदिकालमें होनेवाले अतिचारोंकी अपेक्षा अनेक भेद हैं । सायंकालमें सौ उच्छ्वास प्रमाण, प्रातःकालमें पचास उच्छ्वास प्रमाण, पाक्षिक अतिचारमें तीन सौ उच्छवास प्रमाण, चार मासोंमें चार सौ उच्छ्वास प्रमाण और वार्षिकमें पाँच सौ उच्छ्वास प्रमाण काल कायोत्सर्गका है । हिंसा आदि पाँच अतिचारोंमें एक सौ आठ उच्छ्वास मात्र काल तक कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग करनेपर यदि उच्छ्वासका अथवा परिणामका स्खलन हो जाये तो आठ उच्छ्वासप्रमाण अधिक काल तक कायोत्सर्ग करना चाहिए।
___ कायोत्सर्गके चार भेद हैं-उत्थितोत्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टउत्थित, और उपविष्टनिविष्ट । जो धर्मध्यान या शुक्लध्यान सहित कायोत्सर्ग करता है उसके उत्थितोत्थित नामक कायोत्सर्ग है। यहाँ द्रव्य और भाव दोनोंके ही उत्थानसे युक्त होनेसे उत्थितोत्थित शब्दसे उत्थानका प्रकर्ष कहा है। स्थाणुकी तरह शरीरका उन्नत और निश्चल रहना द्रव्योत्थान है। ज्ञानरूप भावका ध्यान करने योग्य एक ही वस्तुमें स्थिर रहना भावोत्थान है। जो आर्त रौद्रध्यानके साथ कायोत्सर्ग करता है उसके उत्थितनिविष्ट नामक कायोत्सर्ग होता है। शरीरके खड़े होनेसे इसे उत्थित और शभपरिणामकी उद्गतिरूप उत्थानका अभाव होनेसे निविष्ट या निषण्ण कहते हैं। इसीसे एक कालमें एक क्षेत्रमें उत्थान-खड़े होना और निविष्ट–बैठना इन दोनों आसनोंमें कोई विरोध नहीं है क्योंकि दोनोंके निमित्त भिन्न हैं। जो बैठकर ही धर्म और शुक्लध्यान करता है उसके उत्थितनिषण्ण कायोत्सर्ग होता है क्योंकि उसके परिणाम तो उत्थित
१. तत्र शरीर-आ० मु० । २. नां प्रत्युपसि प्राणि-आ० मु० ।
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