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विजयोदया टीका
१६७ तेन बालत्वाद्यनुरूपवैयावृत्त्यक्रियेति यावत् । पेसणकरणं गुर्वादिभिराज्ञप्तस्य । 'संथारकरणं तृणफलकादिकसंस्तरणक्रिया । 'उवकरणपडिलिहणं' गुर्वादीनां ज्ञानसंयमोपकरणप्रतिलेखनं अस्तमनवेलायां आदित्योद्गमने च ।।१२३॥
इच्चेवमानि विणओ उवयारो कीरदे सरीरेण ।
एसो काइयविणओ जहारिहो साहुवग्गम्मि ॥१२४।। उपचारिकविनयः । शेषं सुगमं । वाचिकविनयनिरूपणार्थ गाथाद्वयम्
पूयावयणं हिदभासणं च मिदभासणं च महुरं च ।
सुत्ताणुवीचिवयणं अणिठुरमकक्कसं वयणं ।।१२५।। __ 'पूयावयणं' पूजापुरस्सरं वचनं भट्टारक इदं शृणोमि, भगवन्निदं कतुमिच्छामि युष्मदनुज्ञयेत्यादिकं । ‘हिदभासणं च' गुर्वादीनां यद्धितं लोकद्वयस्य तस्य भाषणं । 'मितभाषणं' यावता विविदिषितार्थप्रतिपत्तिर्भवति तावदेव वक्तव्यं न प्रसक्तानुप्रसक्तं । 'मधुरं' च श्रोत्रप्रियं । 'सुत्ताणुवीचिवयणं' सूत्रानुवीचिवचनं । भाषासमित्यधिकारे यानि वाच्यानि निर्दिष्टानि वचांसि तेषां कथनं । 'अणिठ्ठरं' अनिष्ठुरं परचित्तपीडाकृतावनुद्यतं । 'अकक्कसं वयणं' अकर्कशं वचनं अपरुषमिति यावत् ॥१२५॥
कालकृत अवस्थाविशेष बाल्य अवस्था आदि ग्रहण की है क्योंकि वह कालसे होती है। अतः गुरुकी बाल आदि अवस्थाके अनुसार वैयावृत्य करना चाहिये । उनके लिये तृणोंका या लकड़ीके पटियाका संथरा करना चाहिये । सूर्यके अस्त और उदय होनेके समय उनके ज्ञान और संयमके उपकरण शास्त्र कमण्डलु आदिकी सफाई करना चाहिये ॥१२३।।
___ गा०-इस प्रकारको आदि लेकर उपचार विनय शरीरके द्वारा साधुवर्गमें यथा योग्य की जाती है । यह कायिक विनय है ॥१२४||
टी०-यह उपचार विनय है । शेष सुगम है ।।१२४॥
दो गाथाओंसे वाचिक विनयका निरूपण करते हैं___ गा०—पूजा पूर्वक वचन, हितकारी भाषण, मित भाषण, मधुर भाषण, सूत्रानुसार वचन, अनिष्ठुर और अकर्कश वचन वचनविनय है ।।१२५॥
टी०-'हे भट्टारक ! मैं सुन रहा हूँ,' 'हे भगवन् आपकी आज्ञा हो तो मैं ऐसा करना चाहता हूँ । इस प्रकारसे पूजा पूर्वक वचन बोलना । जो गुरु आदिके लिये इस लोक और परलोक में हितकर हो ऐसा हित भाषण करना। जितना बोलनेसे विवक्षित अर्थका बोध हो उतना ही बोलना, प्रासंगिक या अप्रासंगिक न बोलना । कानोंको प्रिय वचन बोलना, भाषासमिति अधिकार में जो वचन बोलने योग्य कहे हैं उन्हें ही बोलना, तथा दूसरेके चित्तको पीड़ा करने वाले निष्ठुर वचन और कर्कश वचन न बोलना वाचिक विनय है ।।१२५॥
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