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विजयोदया टीका निमित्तत्वादुत्थानासनयोः एकत्र एकदा । यस्त्वासीन एव धर्मशुक्लध्यानपरिणतिमुपैति तस्य उत्थितनिपण्णो भवति परिणामोत्थानात्कायानुत्थानाच्च । यस्तु निषण्णोऽशुभध्यानपरस्तस्य निषण्णनिषण्णकः कायशुभपरिणामाभ्यां अनुत्थानात् ।
देवसिकाद्यतीचारं रत्नत्रयगतं मनसा विमृश्य इदं मया न सुष्टु कृतं प्रमादिनेति संचिन्त्य पश्चाद्धमें शुक्ले वा ध्याने प्रयतितव्यम् ।
कायोत्सर्गप्रपन्नः स्थानदोषान्परिहरेत् । के ते इति चेदुच्यते । १ तुरग इव कुंटीकृतपादेन अवस्थानम् २ लतेवेतस्ततश्चलतोऽवस्थानं ३ स्तंभवत्स्तब्धशरीरं कृत्वा स्थानं । ४ स्तंभोपाश्रयेण वा कुड्याश्रयेण वा मालावलग्नशिरसा वावस्थानम्। ५ लंविताधरतया, स्तनगतदृष्टया वायस इव इतस्ततो नयनोद्वर्तनं कृत्वा । ६ खलीनावपीडितमुखहय इव मुखचालनं संपादयतोऽवस्थानं । ७ युगावष्टब्धवलोवई इव शिरोऽधः पातयता। ८ कपित्थफलग्राहीव विकाशिकरतलं, संकुचिताङ्गुलिपंचकं वा कृत्वा ९ शिरश्चालनं कुर्वन् १० मूक इव हुंकारं संपाधावस्थानं ११ मूक इव नासिकया वस्तुपर्दशयता वा १२ अंगुलीस्फोटनं १३ भ्रूनर्तनं वा कृत्वा १४ शबरवधूरिव स्वकौपीनदेशाच्छादनपुरोगं १५ शृंखलाबद्धपाद इव वावस्थानं १६ पीतमदिर इव परवशगतशरीरो वा भूत्वावस्थानं इत्यमी दोषाः ॥
व्यावणितानामावश्यकानां अपरिहाणिर्हानिर्न कार्या । अणुस्सेगो आधिक्येनाकरणं च । है किन्तु शरीर बैठा हुआ है। जो बैठे हुए अशुभध्यानमें लीन होता है उसके निषण्ण निषण्ण कायोत्सर्ग होता है। क्योंकि न तो उसका शरीर उत्थित है और न शुभपरिणाम ही हैं । रत्नत्रयमें देवसिक आदि अतीचारोंको मनसे विचारकर 'मुझ प्रमादीने यह ठीक नहीं किया' ऐसा सोचकर पीछे धर्मध्यान अथवा शुक्लध्यान करना चाहिये।
कायोत्सर्ग करने वालेको स्थान सम्बन्धी दोष दूर करना चाहिये । वे दोष इस प्रकार हैं१. घोड़ेकी तरह पैरको थोड़ा मोड़कर खड़ा होना। २. बेलकी तरह इधर-उधर हिलते हुए खड़े होना । ३. स्तम्भकी तरह शरीरको स्तब्ध करके खड़े होना । ४. स्तम्भ अथवा दीवारके आश्रयसे अथवा ऊपरके तल्लेसे सिरको लगाकर खड़े होना। ५. ओष्ठको लटकाकर दृष्टि अपने स्तनों पर रखकर कौएकी तरह आँखोंको इधर-उधर घुमाना। ६. लगामसे पीड़ित मुख वाले घोड़ेकी तरह मुख चलाते हुए अवस्थित होना । ७. जैसे कन्धे पर जुआ होनेसे बैल अपना सिर नीचे डालता है उस तरह सिरको लटकाकर अवस्थापन करना। ८. कैथके फलको ग्रहण करने वाला मनुष्य जैसे अपनी हथेलीको फैलाता है उस तरह हथेलीको फैलाकर या पांचों अंगुलियोंको संकुचित करके अवस्थित होना । ९. सिरको चलाते हुए अवस्थान । १०. गूंगेकी तरह हुंकार करते हुए अवस्थान । ११. गूंगेकी तरह ना कसे वस्तुको दिखलाते हुए अवस्थान । १२. अंगुली चटकाते हुए अवस्थान । १३. भौंको नचाते हुए अवस्थान । १४. भीलनीकी तरह अपने अग्रभागको हथेलीसे ढकते हुए अवस्थान । १५. ऐसे खड़े होना मानों दोनों पैर साँकलसे बँधे हैं । १६. मदिरा पिये हुए की तरह अथवा पराधीन शरीर वालेकी तरह खड़ा होना । ये कायोत्सर्गके दोष हैं।
जो पहले छह आवश्यक कहे हैं उनमें हानि नहीं करनी चाहिये और न उनमें आधिक्य करना चाहिये ।। ११८ ।।
१. मया दुष्टं कृतं-आ० मु० ।
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