________________
विजयोदया टोका
१५९
आमरणमवधिं कृत्वा न करिष्यामि स्थूलहिंसादीनि इति प्रत्याख्यानं जीवितावधिकं । उत्तरगुणप्रत्याख्यानं संयतसंयतासंयतयोरपि अल्पकालिकं जीवितावधिकं वा । परिगृहीतसंयमस्य सामायिकादिकं अनशनादिक च वर्तते इति उत्तरगुणत्वं सामायिकादेस्तपसश्च । भविष्यत्कालगोचराशनादित्यागात्मकत्वात्प्रत्याख्यानत्वं । सति सम्यक्त्वे चैतदुभयं प्रत्याख्यानं । जीवनिकायं हिंसादिस्वरूपं च ज्ञात्वा श्रद्धाय सर्वतो देशतो वा हिंसादिविरतिव्रतं । तथा चोक्तं-'निःशल्यो व्रती (त० सू० ७.१८) इति ।
मिथ्यादर्शनशल्यं, मायाशल्यं, निदानशल्यं चेति त्रिविधं शल्यं तेभ्यो निष्क्रांतः निःशल्यः । सावधारणं चेदं निःशल्य एव व्रतीति । तेन सशल्यस्यव्रतिता निरस्ता भवति । न च असति श्रद्धाने मिथ्यात्वशल्यनिवृत्तिः । न च जीवाद्यर्थपरिज्ञानमंतरेण श्रद्धानस्यास्ति संभव इति ज्ञानदर्शनवत एव व्रतिता सूत्रकारेणाख्याता । तथावश्यकेऽप्युक्तम्
"पंचवदाणि जदीणं अणव्वदाइंच देशविरदाणं ।
ण हु सम्मत्तेण विणा तो सम्मत्त पढमदाए ॥"[ ] इति हिंसादिप्रवर्तनपरं भाषितमिति क्रियाः पंचापि सरात्रिभोजनाः प्रत्याचष्टे यतिस्विधा मनोवाक्कायविकल्पेन कृतकारितानुमतैर्यावज्जीवं ।
सम्यग्दृष्टिस्त्वगारी मूलगूणं उत्तरगुणं वा स्वशक्त्या गृहाति परिमितकालं यावज्जीवं वा । आत्मना प्रावकृतं हिंसादिकं हा दुष्टं कृतं, हा दुष्टं संकल्पितं, वचो वा हिंसादिप्रवर्तनपरं भाषितं इति निंदागहमियां
स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल अब्रह्म और परिग्रहका आचरण नहीं करूँगा, इस प्रकारका प्रत्याख्यान अल्पकालिक है । मरणपर्यन्त मैं स्थूल हिंसादि नहीं करूँगा, इस प्रकारका प्रत्याख्यान जीवितावधि है।
उत्तरगुण प्रत्याख्यान संयत और संयतासंयतके भी अल्पकालिक अथवा जीवनपर्यन्त होता है । जिसने संयम ग्रहण किया है उसके सामायिक आदि और अनशन आदि होते हैं इसलिये सामायिक आदि और तप उत्तरगुण हैं। और भविष्यत्कालमें अनशन आदिके त्यागरूप होनेसे प्रत्याख्यान रूप भी हैं । सम्यक्त्वके होने पर ही ये दोनों प्रत्याख्यान होते हैं।
____ जीवनिकाय और हिंसा आदिके स्वरूपको जानकर तथा श्रद्धा करके सर्वदेश अथवा एक देशसे हिंसा आदिके त्यागको व्रत कहते हैं । कहा भी है-जो निःशल्य है वही व्रती है। मिथ्यादर्शन शल्य, मायाशल्य और निदानशल्य, इस प्रकार तीन शल्य हैं। उनसे जो रहित है वह निशल्य है। यह निशल्य शब्द अवधारण सहित है। निःशल्य ही व्रती होता है। इससे जो शल्य सहित है उसके व्रतीपनेका निषेध किया है। श्रद्धानके अभावमें मिथ्यात्वशल्यसे निवृत्ति नहीं होती । और जीवादि पदार्थांके ज्ञानके बिना श्रद्धान संभव नहीं है। अतः ज्ञानदर्शनवान्को ही सूत्रकारने व्रती कहा है । तथा आवश्यकमें भी कहा है-'सम्यक्त्वके बिना न तो यतियोंके पाँच व्रत होते हैं और न देशविरत श्रावकोंके अणुव्रत होते हैं । अतः सम्यक्त्वको प्रथमता है।'
इस प्रकार यति मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनासे रात्रिभोजनके साथ हिंसा आदि पाँचों पापोंका त्याग जीवनपर्यन्तके लिये करता है। गृहस्थ सम्यग्दृष्टि मूलगुण अथवा उत्तरगुणको अपनी शक्तिके अनुसार कुछ काल या जीवनपर्यन्तके लिये ग्रहण करता है। अपने द्वारा पहले किये गये हिंसा आदिको 'हा, मैंने बुरा किया, हा, मैंने बुरा संकल्प किया, हिंसा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org