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विजयोदया टीका मरणाणि सत्तरस देसिदाणि तित्थंकरहिं जिणवयणे ॥
तत्थ वि य पंच इह संगहेण मरणाणि वोच्छामि ॥२५॥ मरणान्यनेकप्रकाराणि इति शास्त्रान्तरे निर्दिष्टानि । तेष्विह निरूप्याणीमानीति निरूपयितुं इदमुत्तरं सूत्रं मरणाणीति । मरणं विगमो विनाशः विपरिणाम इत्येकोऽर्थः । तच्च मरणं जीवितपूर्वम् । जीवितं स्थितिरविनाशोऽवस्थितिरिति यावत् । स्थितिपूर्वको विनाशः । यदस्थितिकं तन्न विनश्यति यथा बन्ध्यासुतः । तथा च स्थितिरहितं वस्तु क्षणिकवादिनिरूप्यं जीवितं जन्मपुरोगं अनुत्पन्नस्य स्थित्यभावात् । तत उत्पत्तिविगमो ध्रौव्यं च सर्वेषां रूपाणि । अस्यां च प्रक्रियायां मरणं नामोत्पन्नपर्यायविनाशः। देवत्वं, तिर्यक्त्वं, नारकत्वं, मनुष्यत्वं, इत्यमीषां पर्यायाणां प्रध्वंस इह मरणशब्दवाच्यः । अथवा प्राणपरित्यागो मरणं । तथा चाभ्यधायिमङप्राणत्यागे इति । एवमेव प्राणग्रहणं जन्म, प्राणानां धारणं जीवितं । प्राणा द्विविधा द्रव्यप्राणा भावप्राणाश्च । तत्र द्रव्यप्राणा इन्द्रियाणि, बलं, उच्छ्वास, आयुरित्येतानि पुद्गलद्रव्याणि । भावप्राणा ज्ञानदर्शनचारित्राणि । एतत्प्राणापेक्षया सिद्धानां जीवितं । तत्रायद्विभेदं अद्धायर्भवायुरिति च । भवधारणं भवायुर्भवः शरीरं तच्च ध्रियते आत्मना' आयुष्कोदयेन । ततो भवधारणमायुष्काख्यं कर्म तदेव भवायुरित्युच्यते । तथा चोक्तम्
देहो भवोत्ति वुच्चदि धारिज्जइ आउगेण य भवो सो।
तो वुच्चवि भवधारणमाउगकम्मं भवाउत्ति ॥ [...] गा०-जिनागममें तीर्थङ्करोंने मरण सतरह कहे हैं। उन सतरह प्रकारके. मरणोंमेंसे भी यहाँ (संगहेण) संक्षेपसे पाँच मरणोंको कहूँगा ॥२५।।
दी-मरण अनेक प्रकारके हैं ऐसा अन्य शास्त्रोंमें कहा है। उनमेंसे यहाँ इन मरणोंको कहना है यह बतलानेके लिए यह गाथासूत्र आया है। मरण, विगम, विनाश, विपरिणाम इन सब शब्दोंका अर्थ एक है। वह मरण जीवनपूर्वक होता है । जीवन, स्थिति, अविनाश, अवस्थिति ये सब एकार्थक हैं। स्थितिपूर्वक विनाश होता है। जिसकी स्थिति नहीं है उसका विनाश नहीं है जैसे बाँझका पुत्र नहीं होता तो उसका विनाश भी नहीं होता। क्षणिकवादी बौद्धोंने जिस वस्तुको कहा है उसकी स्थिति नहीं है अर्थात् वह वस्तु ही नहीं है। जीवन जन्मपूर्वक होता है। जो उत्पन्न नहीं हुआ उसकी स्थिति नहीं है। इसलिए प्रत्येक वस्तु उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्यरूपको लिए हुए है। इस प्रक्रियाके अनुसार उत्पन्न हुई पर्यायके विनाशका नाम मरण है।
तर्यञ्चपना. नारकपना और मनुष्यपना इन पर्यायोंका विनाश यहाँ मरणशब्दसे लिया है । अथवा प्राण छोड़नेका नाम मरण है। कहा भी है-'मृधातु' प्राणत्यागके अर्थमें हैं। इसी तरह प्राणग्रहणको जन्म कहते हैं। प्राणोंको धारण करना जीवन है । प्राणोंके दो भेद हैं-द्रव्यप्राण और भावप्राण । इन्द्रिय पाँच, तीन बल, उच्छ्वास और आयु ये पुद्गलद्रव्य द्रव्यप्राण हैं । ज्ञान, दर्शन, चारित्र ये भावप्राण हैं। इन भावप्राणोंकी अपेक्षा सिद्धों में जीवन होता है। उन प्राणोंमें आयुप्राणके दो भेद हैं-अद्धायु और भवाय । भवधारणको भवायु कहते है । भव.शरीरको कहते हैं। आयुकर्मके उदयसे आत्मा भवधारण करता है। अतः आयुकर्म भवधारणरूप है उसे ही भवायु कहते हैं। कहा भी है-शरीरको भव कहते हैं । वह भव आयुकर्मके द्वारा धारण किया
१. आत्मनः आ० मु०।।
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