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विजयोदया टीका नेनेति वा मोहो दर्शनमोहनीयाख्यं कर्म मद्येन तुल्यवीर्यम् । यथा मद्यमासेव्यमानं अपाटवं प्रज्ञाया वैपरीत्यं च संपादयति ॥३९॥
मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणो होदि ।।
ण य धम्म रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥४०॥ एवं मिथ्यात्व'कर्मापि तस्य उदयः सन्निहितसहकारिकारणस्य प्रतिबद्धवृत्तिस्तेनोदयेन कारणेन निरूपितं वस्तुयाथात्म्यं न श्रद्धत्ते अतत्त्वं तु कथितं अकथितं वा श्रद्धत्ते ॥४०॥
वस्तुयाथात्म्याश्रद्धाने को दोषो येन तत्प्रतिपक्षश्रद्धानभावनया तदपास्यते इत्याशंकायां अश्रद्धानकृतदोषमाहात्म्यख्यापनार्था गाथा
सुविहियमिमं पवयणं असदहतेणिमेण जीवेण ।।
बालमरणाणि तीदे मदाणि काले अणंताणि ॥४१॥ सुविहिदमिति । सुष्ठु विहितं कृतं पूर्वापरविरोधदोषरहितवस्तुयाथात्म्यनाहिविज्ञानकारणं । 'इम' इदं । 'पवयणं' प्रवचनं । असहहंतेण अश्रदृधानेन । 'इमेण' अनेन । 'जीवेण' जीवेन । एवमत्र पदसंबंधः । बालमरणाणि 'अणंताणि मदानि तीदे काले' इति । बालमरणान्यनंतानि अतीतकाले मृतानि । ननु मिथ्या
मिथ्यादृष्टि है । यहाँ मोहसे दर्शनमोहनीय कर्म लेना। उसमें मद्यके समान शक्ति होती है । जैसे मद्यका सेवन बुद्धिको मन्द और विपरीत कर देता है वही दशा इस दर्शन मोहनीय ककी है ॥३९॥
गा०—मिथ्यात्वको वेदन--अनुभवन करने वाला जीव विपरीत श्रद्धावाला होता है । उसे धर्म नहीं रुचता । जैसे ज्वरसे ग्रस्त व्यक्तिको निश्चयसे मधुर रस नहीं रुचता ॥४०॥
टी--मद्यके समान ही मिथ्यात्व कर्म भी है। उसका उदय सहकारी कारणका सांनिध्यपाकर अपना कार्य करने में कटिबद्ध होता है । अतः उसके उदयके कारण शास्त्रमें कहे गये वस्तुके यथार्थ स्वरूपका श्रद्धान नहीं करता। और कहे गये या बिना कहे अतत्त्वका श्रद्धान करता है ।।४०॥
वस्तुका यथार्थ श्रद्धान न करने में क्या दोष है जिससे उसके प्रतिपक्षी श्रद्धानकी भावनासे उस दोषको दूर किया जाता है ? ऐसी शंका होने पर अश्रद्धानसे होने वाले दोषका महत्त्व बतलानेके लिये गाथा कहते हैं--
गा०--अच्छी तरहसे किये गये इस प्रवचनको अश्रद्धान करने वाले जीवने अतीतकालमें अनन्त बालमरण मरे ॥४१॥
टो०--पूर्वापर विरोध नामक दोषसे रहित होनेसे तथा वस्तुके यथार्थ स्वरूपको ग्रहण करने वाले ज्ञानका कारण होनेसे प्रवचनको सुविहित कहा है। ऐसे प्रवचनका श्रद्धान न करनेके दोषसे इस जीवको अतीतकालमें अनन्त बार बालमरणसे मरना पड़ा है।
१. मिथ्यात्वस्य ।
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