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विजयोदया टीका
पुनरप्यचेलतामाहात्म्यं सूचयत्युत्तरगाथा
इय सव्वसमिदकरणो ठाणासणसयणगमण किरियासु ।
णिगिणं गुत्तिमुवगदो पग्गहिददरं परक्कमदि ।। ८५ ।।
'इय' एवं अवसनतया । 'सव्वसमिवकरणो सम्यगितानि प्रवृत्तानि समितानि, क्रियते रूपाद्युपयोग एभिरिति करणानि इंद्रियाणि, समितानि च तानि करणानि च समितकरणानि सर्वाणि च तानि समितकरणानि च सर्वसामंतकरणानि, सर्वसमितकरणान्यस्येति सर्वसमितकरणः । रागद्वेषरहिता भावेन्द्रियाणां प्रवृत्तिः समीचीना तस्याश्च अलता निबंधनं । रागादिविजयाय गृहितासंगत्वात्कथमिव रागादी प्रेक्षावान्यतते ॥८५॥
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'ठाणासणसयणगमणकिरियासु' एकपादसमपादादिका स्थानक्रिया, उत्कटासनादिका आसनक्रिया, दंडायतशयनादिका शयनक्रिया । सूर्याभिमुखगमनादिका गमनक्रिया । एतासु । पग्गहिदवरं प्रगृहीततरं । 'परक्कम दि' चेष्टते । कः ? निगिणं नग्नतां । 'गुति' गुप्ति । 'उवगदो' उपगतः प्रतिपन्नः । कृतवसनत्यागस्य शरीरे निःस्पृहस्य मम किं शरीरतपंणेन तपसा निर्जरामेव कर्तुं मुत्सहते इति तपसि यतते इति भावः ॥८५॥ अपवादलिंगमुपगतः किमु न शुद्धयत्येवेत्याशंकायां तस्यापि शुद्धिरनेन क्रमेण भवतीत्याचष्टेअववादिय लिंगको विसयासत्तिं अगूहमाणो य । णिंदणगरहणजुत्तो सुज्झदि उवधिं परिहरंतो ॥ ८६ ॥
आगेकी गाथासे फिर भी अचेलताका माहात्म्य सूचित करते हैं
गा० - इस प्रकार, नग्नता और गुप्तिको धारण करनेवाला सब इष्ट अनिष्ट विषयोंमें अपनी इन्द्रियोंको रागद्व ेषसे रहित करता है । और स्थान, आसन, शयन, गमन आदि क्रियाओंमें प्रग्रहीततर अर्थात् सुदृढ़रूपसे चेष्टा करता है || ८५ ॥
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दी० -- सव्वसमिदकरणानि - सम्यक् रूपसे 'इत' अर्थात् प्रवृत्तको समित कहते हैं । और जिनसे रूपादिका जानना देखना किया जाये उसे करण कहते हैं । करणका अर्थ इन्द्रिय है । जिसकी सब इन्द्रियां समित हैं वह सर्वसमितकरण है । भावेन्द्रियोंकी रागद्वेषसे रहित समीचीन प्रवृत्ति में कारण अचेलता है जिस विचारशील बुद्धिमान व्यक्तिने रागादिको जीतने के लिए असंगत को स्वीकार किया है वह रागादिमें कैसे यत्नशील हो सकता है ।
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एक पैर से या दोनों पैरोंको सम करके खड़े होना स्थान क्रिया है उत्कटासन आदि आसन क्रिया है । दण्डके समान एकदम सीधा सोना आदि शयन क्रिया है । सूर्यकी ओर अभिमुख होकर चलना गमन क्रिया है । जिसने वस्त्र त्याग दिया है और शरीर से निस्पृह है वह 'मुझे शरीर के पोषणसे क्या' ऐसा विचारकर तपके द्वारा निर्जरा करनेमें ही उत्साहित होता है । यह उक्त कथनका भाव है ||८५||
अचेल समाप्त हुआ ।
क्या अपवाद लिंगका धारी शुद्ध नहीं ही होता ? इस शंकाके उत्तर में कहते हैं कि उसकी शुद्धि भी इस क्रमसे होती हैं
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गा०
- अपवादलिंग में स्थित होते हुए भी अपनी शक्तिको न छिपाते हुए और निन्दा ग करते हुए परिग्रहका त्याग करनेपर शुद्ध होता है || ८६ ॥
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