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विजयोदया टीका एषः । 'चरित्तविणओ' चारित्रविनयः । 'समासदो' संक्षेपतः । ‘णादव्वो' ज्ञातव्य । 'होदि' भवति ।
___ इंद्रियकषायाप्रणिधानं मनोगुप्तिरेव किमर्थं पृथगुच्यते ? सत्यम् । वाक्कायगुप्त्योरेव गुत्तीओ इत्यनेन परिग्रहः । अथवा रागद्वेषमिथ्यात्वाद्यशुभपरिणामविरही मनोगुप्तिः सामान्यभूता। इंद्रियकषायाप्रणिधानं तद्विशेषः । सामान्यविशेषयोश्च कथंचिद्भेदान्न पौनरुक्त्यं । मनोगुप्तावन्तर्भूतस्यापि इंद्रियकषायाप्रणिधानस्य भेदेनोपादान चारित्रार्थिनोऽवश्यं परिहार्यत्वख्यापनार्थ वा।
ननु त्रयोदशविधं चारित्रं पंच महाव्रतानि, पंच समितयः, तिस्रो गुप्तयः इति । ततः समितीनां गुप्तीनां चारित्रत्वे चारित्रस्य विनय इति कथं भेदेनाभिधानं ? व्रतान्येवान्यत्र चारित्रशब्देनोच्यते । तेषां परिकरत्वेनावस्थिताः गुप्तयः समितयश्चेति सत्रकारस्याभिप्रायः । तथा चोक्तमन्यैः 'कर्मादाननिमित्तक्रियाभ्यश्च विरतिः अहिंसाभेदेन पंचप्रकारा गुप्तिसमितिविस्तारः' संक्षेपो भवति। कश्चारित्रबिनयव्यास' इति चेत पंचविंशतिभावनाः । 'तस्थैर्याथं भावनाः पंच पंचेति' (त० सू० ७१९) निरूपिता ॥११४॥
गमन, भाषण, भोजन, ग्रहणनिक्षेप और मल मूत्र त्याग रूप क्रियाको समिति कहते हैं। ये सब संक्षेपसे चारित्र विनय है ।
का-इन्द्रिय और कषायमें उपयोग न लगाना तो मनोगुप्ति ही है, उसे पृथक् क्यों कहा?
समाधान-आपका कहना सत्य है । यहाँ 'गुत्तीओ' से वचन गुप्ति और कायगुप्तिका हो ग्रहण किया है।
अथवा रागद्वेष मिथ्यात्व आदि अशुभ परिणामोंका अभाव सामान्य मनोगुप्ति हैं। और इन्द्रिय तथा कषायमें उपयोगका न होना विशेष मनोगुप्ति है । और सामान्य तथा विशेषमें कथंचित् भेद होनेसे पुनरुक्तता दोष नहीं है। अथवा इन्द्रिय और कषायका अप्रणिधान यद्यपि मनोगुप्तिमें आ जाता है फिर भी उसका पृथक् ग्रहण चारित्रके इच्छुकोंको उसका त्याग अवश्य करना चाहिये, यह बतलानेके लिये किया है ।
शंका-चारित्रके तेरह भेद हैं—पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति । अतः समिति और गुप्ति चारित्र हैं । तब इन्हें चारित्रकी विनयके रूपमें भिन्न क्यों कहा है ?
समाधान–यहाँ चारित्र शब्दसे व्रत ही कहे गये हैं। गुप्ति और समितियां उन व्रतोंके परिकर रूपसे स्थित हैं यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है। अन्य आचार्योने भी कहा है-कर्मोको लाने में निमित्त क्रियाओंसे विरति अहिंसा आदिके भेदसे पाँच प्रकारकी हैं। गुप्ति समिति उनका विस्तार है।
शंका-चारित्र विनयका विस्तार क्या है ? ___ समाधान-पाँच ब्रतोंको पच्चीस भावना विस्तार है । तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा है-उन व्रतोंकी स्थिरताके लिये पाँच-पाँच भावना है ॥११४॥
१. स्तारसं-आ० मु०। २. यन्यास-आ० मु० ।
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