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भगवती आराधना पणिधाणं पि य दुविहं इंदिय णोइंदियं च बोधव्वं । सद्दादि इंदियं पुण कोधाईयं भवे इदरं ॥११५।। सदरसरूवगंधे फासे य मणोहरे य इयरे य । जं रागदोसगमणं पंचविहं होदि पणिधाणं ॥११६॥ णोइंदियपणिघाणं कोघो माणो तधेव माया य ।
लोभो य णोकसाया मणपणिधाणं तु तं वज्जे ॥११७।। तपोनिरूपणार्थ गाथाद्वयमुत्तरम्
उत्तरगुणउज्जमणे सम्म अघिआसणं च सढ्ढाए । आवासयाणमुचिदाण अपरिहाणी अणुस्सेओ ॥११८॥
सम्यग्दर्शनज्ञानाभ्यामुत्तरकालभावित्वात्संयमः उत्तरगुणशब्देनोच्यते । न हि श्रद्धानं ज्ञानं चांतरण संयमः प्रवर्तते । अजानतः श्रद्धानरहितस्य वाऽसंयमपरिहारो न संभाव्यते। तेनायमर्थ:--संयमोद्योग' इति तपसो निर्जराहेतुता सति संयमे, नान्यथेति तपसः संयमः परिकरः । तथा चाहः 'संजमहीणं च तवं जो कुणइ णिरत्ययं कुणइ' इति । 'सम्म' सम्यक् । संक्लेशं दैन्यं चांतरेण 'अधियासणं' सहनं क्षुधादेः ।
. गा०-प्रणिधानके भी दो भेद हैं इन्द्रिय और नोइन्द्रिय । शब्द आदि इन्द्रिय और क्रोधादिक नोइन्द्रिय प्रणिधान है ऐसा जानना ॥ ११५ ॥
गा०-मनोहर और अमनोहर शब्द, रस, रूप गन्ध और स्पर्शमें जो राग द्वेष होता है वह पाँच प्रकारका इन्द्रिय प्रणिधान होता है ॥ ११६ ॥
गा०-नो इन्द्रिय प्रणिधान क्रोध मान तथा माया लोभ और नोकषाय है। ये तो मन प्रणिधान छोड़ना चाहिये ॥ ११७ ।।
तपका कथन करनेके लिये आगे दो गाथा कहते हैं
गा०-उत्तर गुण अर्थात् संयममें उद्यम सम्यक् रीतिसे भूख प्यास आदिको सहन करना, तपमें अनुराग पहले कहे गये छह आवश्यकोंकी न्यूनता न होना आधिक्य न होना ॥ ११८ ॥
___टी०-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके उत्तर कालमें होनेसे संयमको उत्तरगुण कहते हैं । श्रद्धान और ज्ञानके बिना संयम नहीं होता । अथवा जो जानता नहीं है और न जिसे श्रद्धा है वह असंयमका त्याग नहीं कर सकता। इससे यह अर्थ हुआ कि संयमके होने पर तप निर्जराका कारण होता है, अन्यथा नहीं होता। इन प्रकार संयम तपका परिकर है। कहा भी है-'जो
१. द्योततपसो-आ० मु० । २. गा० ११४, ११५, ११६ पर टीका नहीं है । आशाधरजीने अपनी टीकामें कहा है कि टीकाकार इन्हें स्वीकार नहीं करता ।-सं० ।
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