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भगवती आराधना
च्यते-सर्वमेव वस्तु स्वपरभावाभावोभयाधीनात्मलाभं यथा घटः पृथु लोदराद्याकारात्मकः पटादिरूपतयाऽग्राह्यः, अन्यथा विपर्ययस्तं तज्ज्ञानं भवेत् । एवमिहापि हितविलक्षणमहितं अजानता तद्विलक्षणता हित ज्ञाता भवेत् । अतो हितज्ञोऽहितमपि वेत्तोति युक्ता निवृत्तिस्ततः ।।१०२।। शिक्षाया अशुभभावसंवरहेतुता प्रतिपादनायाह
सज्झायं कुव्वंतो पंचिंदियसुंदडो तिगुत्तो य ॥
हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिदो भिक्खू ।।१०३।। "सज्झाय' स्वाध्यायं पंचविधं वाचनाप्रश्नानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशभेदेन । तत्र निरवद्यस्य ग्रन्थस्या ध्यापनं तदर्थाभिधानपुरोगं वाचना । संदेहनिवृत्तये निश्चितवलाधानाय वा सूत्रार्थविषयः प्रश्नः । अवगतार्थानप्रेक्षणं अनुप्रेक्षा । आम्नायो गुणना। आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवैजनी, निवेदनीति चतस्रः कथास्तासां कथनं धर्मोपदेशः.। तं स्वाध्यायं कुर्वन् । 'चिदयसंवुडो होदि' पंचेन्द्रियसंवृतो भवति । ननु पञ्चेन्द्रिय शब्दः निष्ठांतस्य पूर्वनिपातासंवृतपंचेन्द्रिय इति भवितव्यम् ? सत्यं । 'जातिकालसुखादिभ्यः परवचनम्' इत्यनेन बहब्रोही पंचेन्द्रियत्वजातिवृत्तिरिति जातिवचनः । ततो निष्ठांतं परतःप्रयज्यते इति मन्यते । इन्द्रियमनेकप्रकारं द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं इति । इह तु रूपाधुपयोगा इन्द्रियशब्देनोच्यन्ते । तेनायमर्थःस्वाध्यायं कुर्वन्निरुद्ध
समाधान-प्रत्येक वस्तुका जन्म स्वके भाव और परके अभाव, इन दोनोंके अधीन है। जैसे घट बड़े पेट आदि आकारवाला होता है. पटादिरूपसे उसका ग्रहण नहीं होता। यदि घटका पटरूपसे ग्रहण हो तो वह ज्ञान विपरीत कहलायेगा। इसी तरह यहाँ भी जो हितसे विलक्षण अहितको नहीं जानता वह उससे विलक्षण हितका भी ज्ञाता नहीं हो सकता। अतः जो हितको जानता है वह अहितको भी जानता है । इसलिए उसकी अहितसे निवृत्ति उचित ही है ।।१०२॥
शिक्षा अशुभभावके संवरमें हेतु है, यह कहते हैं
गा-विनयसे युक्त होकर स्वाध्याय करता हुआ साधु पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंसे संवृत और तीन गुप्तियोंसे गुप्त एकाग्रमन होता है ।। १०३ ॥ . टी.-वाचना, प्रश्न, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेशके भेदसे स्वाध्यायके पाँच भेद हैं। उसके अर्थका कथन करने पूर्वक निर्दोष ग्रन्थके पढ़ानेको वाचना कहते हैं। सन्देहको दूर करनेके लिये अथवा निश्चितको दृढ़ करनेके लिये सूत्र और अर्थके विषयमें पूछना प्रश्न है । जाने हुए अर्थका चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । कण्ठस्थ करना आम्नाय है। कथाके चार प्रकार हैं-आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निवेदनी । उनके करनेको धर्मोपदेश कहते हैं। उस स्वाध्यायको करने वाला पञ्चेन्द्रिय संवृत होता है ।
शङ्का-बहुव्रीहि समासमें निष्ठान्तका पूर्वनिपात होनेसे 'संवृत पञ्चेन्द्रिय' होना चाहिये।
समाधान-आपका कथन सत्य है। 'जातिकाल सुखादिभ्यः परवचनम्' इस सूत्रसे पञ्चेन्द्रिय शब्द पञ्चेन्द्रिय जातिवृति होनेसे जातिवाचक है। इसलिये निष्ठान्तका प्रयोग पञ्चेन्द्रियके आगे किया है।
इन्द्रियके अनेक भेद हैं-द्रव्येन्द्रिय भावेन्द्रिय । किन्तु यहाँ इन्द्रियशब्दसे रूपादि विषयक १. पृथुतलाद्या-अ० । पृथुलाद्या-आ० । २. यान्नि-आ० मु० ।
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