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विजयोदया टीका
१३७ रूपाधुपयोगो भवति इति । रूपाद्युपयोगनिरोधे किं फलं ? रागाद्यप्रवृत्तिः । मनोज्ञामनोज्ञरूपाधुपयोगावलंबनौ रागद्वेषौ। न ह्यनवबुध्यमानो विषयः स्वसत्तामात्रेण तो करोति । सुप्तेऽन्यमनस्के वा रागादीनां विषयसन्निधावप्यदर्शनात् ।
"गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते।
तत्तो विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा॥" [पञ्चास्ति० १२९ ] इति वचनाच्च । कथं स्वाव्याये प्रवर्तमानः 'विणयेण समाहिदों' ज्ञानविनयेन समन्वितो भूत्वा यः स्वाघ्यायं करोति 'तिगुत्तो य होदि' तिसृभिर्गुप्तिभिश्च भवति । मनसोप्रशस्तरागाद्यनवलेपात्, अनृतरूक्षपरुषकर्कशात्मस्तवनपरदूषणादावव्यापृतेः, हिंसादौ शरीरेणाप्रवृत्तेश्च, “एयग्गमणो य होदि भिक्खू' इति पदघटना-एकमुखान्तःकरणश्च भवति भिक्षुः स्वाध्याये रतः । एतदुक्तं भवति-ध्याने प्रवृत्तिमप्यासादयतीति । न ह्यकृतश्रुतपरिचयस्य धर्मशुक्लध्याने भवितुमर्हतः । अपायोपायभवविपाकलोकविचयादयो धर्मध्यानभेदाः । अपायादिस्वरूपज्ञानं जिनवचनबलादेव 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' [त-सू० ९।३७] इत्यभिहितत्वाच्च ॥१०॥
प्रत्यग्रसंवेगप्रभवक्रममाचष्टे
जह जह सुदमोग्गाहदि अदिसयरसपसरमसुदपुव्वं तु ।
तह तह पल्हादिज्जदि नवनवसंवेगसड्ढाए ।। १०४ ।। उपयोग कहा गया है । अतः यह अर्थ होता है कि स्वाध्यायको करने वालेका रूपादि विषयक उपयोग रुक जाता है।
शङ्का-रूपादि विषयक उपयोगको रोकनेका क्या फल है ?
समाधान-रागादिकी प्रवृत्ति नहीं होती। राग द्वेष मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूपादि विषयक उपयोगका आश्रय पाकर होते हैं। जिस विषयको जाना नहीं वह विषय केवल अपने अस्तित्वमात्रसे राग द्वषको पैदा नहीं करता। क्योंकि सोते हुए या जिसका मन अन्य ओर है. उस मनुष्यमें विषयके पासमें होते हुए भी राग द्वष नहीं देखे जाते । कहा है-'गतिमें जाने पर शरीर बनता है। शरीरसे इन्द्रियाँ बनती हैं। इन्द्रियोंसे विषयोंका ग्रहण होता है और उससे राग और द्वष होते हैं । जो विनय पूर्वक स्वाध्याय करता है वह पञ्चेन्द्रिय संवृत और तीन गुप्तियोंसे गुप्त होता है क्योंकि उसका मन अप्रशस्त रागादिके विकारसे रहित होता है, झूठ, रुक्ष, कठोर, कर्कश, अपनी प्रशंसा, परनिन्दा आदि वचन नहीं बोलता, तथा शरीरके द्वारा हिंसा आदिमें प्रवृत्ति नहीं करता । तथा स्वाध्यायमें लीन साधु एकाग्रमन होता है। अर्थात् ध्यानमें भी प्रवृत्ति करता है। जिसका श्रुतसे परिचय नहीं है उसके धर्मध्यान शुक्लध्यान नहीं होते । अपायविचय, उपायविचय, विपाकविचय, लोकविचय आदि धर्मध्यानके भेद हैं। अपाय आदिके स्वरूपका ज्ञान जिनागमके बलसे ही होता है । कहा भी है-आदिके दो शुक्लध्यान और धर्मध्यान पूर्ववित् श्रुतकेबलीके होते हैं ।। १०३ ॥
नवीन संवेगके उत्पन्न होनेका क्रभ कहते हैं
गा०-जैसे-जैसे अतिशय अभिधेयसे भरा, जिसे पहले कभी नहीं सुना ऐसे श्रुतको अवगाहन करता है, तैसे-तैसे नई नई धर्मश्रद्धासे आह्लाद युक्त होता है ।। १०४ ।।
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