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विजयोदया टोका
१४१ प्रतिज्ञामात्रेण स्वाध्यायस्यान्यतपोभ्योऽतिशयितता न सिद्धयतीति मन्यमानं प्रति अतिशयसाधनायाह
जं अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि अंतोमुहुत्तेण ॥१०७।। छट्टट्ठमदसमदुबालसेहिं अण्णाणियस्स जा सोही ।
तत्तो वहुगुणदरिया होज्ज हु जिमिदस्स णाणिस्स ॥१०८|| 'जं' यत । 'अण्णाणी' सम्यज्ञानरहितः । 'कम्म' कर्म । 'खवेदि' क्षपयति । 'भवसदसहस्सकोडोहि' भवशतसहस्रकोटिभिः । 'तं' तत् कर्म । 'णाणी' सम्यग्ज्ञानवान् । 'तिहिं गुत्तो' त्रिगुप्तियुक्तः । 'खवेदि' क्षपयति । 'अंतोमुत्तेण' अन्तर्मुहूर्तमात्रेण । झटिति कर्मशातनसामर्थ्य तपसोऽन्यस्य न विद्यते इत्ययमतिशयः स्वाध्यायस्य ।।१०७॥
_स्वाध्याये उद्यतो गुप्तिभावनायां प्रवृत्तो भवति । तत्र च वृत्तस्य रत्नत्रयाराधनं सुखेन भवति इत्युत्तरगाथया कथ्यते
सज्झायभावणाए य भाविदा होति सव्वगुत्तीओ।
गुत्तीहिं भाविदाहिं य मरणे आराघओ होदि ॥१०९।। मनोवाक्कायव्यापाराः कर्मादानहेतवः सर्व एव व्यावर्तते स्वाध्याये सति, ततो भाविता भवन्ति गुप्तयः । कृताभिमतादियोगत्रयनिरोधश्च रत्नत्रय एव घटते इति सुखसाध्यता। अनंतकालाभ्यस्ताशभबाह्य और अभ्यन्तर कहे गये हैं ऐसा आचार्यका अभिप्राय है ॥१०६।।
__ जो कहता है कि केवल कहने मात्रसे स्वाध्यायको अन्य तपोंसे श्रेष्ठता सिद्ध नहीं हो सकती, उसके प्रति श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं
गा०–सम्यग्ज्ञानसे रहित अज्ञानी जिस कर्मको लाख करोड़ भवोंमें नष्ट करता है, उस कर्मको सम्यग्ज्ञानी तीन गुप्तियोंसे युक्त हुआ अन्तर्मुहूर्तमात्रमें क्षय करता है ।।१०७॥
गा.-अज्ञानीके दो, तीन, चार, पाँच आदि उपवास करनेसे जितनी विशुद्धि होती है उससे बहुत गुणी शुद्धि जीमते हुए ज्ञानीके होती है ।।१०८॥
टो०-इतनी शीघ्रतासे कर्मोको काटनेकी शक्ति अन्य तपमें नहीं है, यह स्वाध्यायका अतिशय है ।।१०८॥
जो स्वाध्यायमें तत्पर होता है वह गुप्ति भावनामें प्रवृत्त होता है । और जो गुप्ति भावनामें प्रवृत्त होता है वह रत्नत्रयकी आराधना सुख पूर्वक करता है वह आगेकी गाथासे कहते हैं
गा०-स्वाध्याय भावनासे सब गुप्तियाँ भावित होती है। और गुप्तियोंकी भावनासे मरते समय रत्नत्रय रूप परिणामोंकी आराधनामें तत्पर होता है ।।१०९।।
टी०-स्वाध्याय करनेपर मन वचन कायके सब ही व्यापार, जो कर्मोंके लानेमें कारण हैं चले जाते हैं। ऐसा होनेसे गुप्तियाँ भावित होती हैं। और तीनों योगोंका निरोध करने वाला मुनि रत्नत्रयमें ही लगता है । अतः रत्नत्रय सुख पूर्वक साध्य होता है, इसका भाव यह है कि
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