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भगवती आराधना योगत्रयस्य कर्मोदयसहायस्य व्यावर्तनमतिदुष्करं स्वाध्यायभावनैव क्षमा कतु मिति भावः । 'सज्झायभावणाए य स्वाध्यायभावनया वा। ‘भाविदा' भाविताः । 'होति' भवन्ति । 'सव्वगुत्तीओ' सर्वगुप्तयः । 'गुत्तीहि' गुप्तिभिः । 'भाविदाहि' भाविताभिः । 'मरणे' मरणकाले । 'आराधगो' रत्नत्रयपरिणामाराधनपरः । 'होदि' भवति । स्वाध्यायभावनारतः परस्योपदेशको भवन् इतरोऽज्ञः कमुपकारं परस्य संपादयेदभव्यस्य ।१०९ ॥ परस्योपदेशकत्दै किमस्यायातमित्यत्राह
आदपरसमुद्धारो आणा वच्छल्लदीवणा भत्ती ।
होदि परदेसगत्ते अव्वोच्छित्ती य तित्थस्स ॥११०॥ 'आदपरसमुद्धारों' आत्मनः परस्य वा उद्धरणमुद्दिश्य व्यापृतः स्वाध्याये स्वकर्माण्यपि साधयति परेषामप्युपयुक्तानां । 'आणा' "श्रेयोथिना हि जिनशासनवत्सलेन कर्तव्य एव नियमेन हितोपदेशः" (वरांगच. १२१३) इत्याज्ञा सर्वविदां, सा परिपालिता भवतीति शेषः । 'वच्छल्लदीवणा' वात्सल्यप्रभावना परेषामुपदेशकत्वे कृता भवति । 'भत्ती' भक्तिश्च कृता भवति जिनवचने तदभ्यासात् । 'होदि' भवति । 'परदेसगत्ते' परेषामुपदेष्टकत्वे सति । 'अव्वोच्छित्ती य' अव्युच्छित्तिश्च । 'तित्थस्स' तिसु चिट्ठदित्ति तित्थं मोक्षमार्गः श्रुतं वां । श्रुतमपि रत्नत्रयनिरूपणे व्यापृतत्वात् तत्रस्थं भवति । ततोऽयं अर्थः-श्रुतस्य मोक्षमार्गस्य वा अव्यच्छित्तिरिति ॥ ११०॥ सिक्खा गदा ॥ लिंगग्रहणानंतरं ज्ञानसंपत्तिः कार्या, ज्ञानसंपदि वर्तमानेन विनयोऽनुष्ठातव्यः । स च पंचप्रकार इत्याह
विणओ पुण पंचविहो णिद्दिट्ठो णाणंदसणचरिने । तवविणवो य चउत्थो चरिमो उवयारिओ विणओ ॥१११॥ . . ..
अनन्तकालसे जिन तीन अशुभयोगोंका इस जीवने अभ्यास किया हुआ है और कर्मका उदय जिसका सहायक है उससे अलग होना अत्यन्त कठिन है । स्वाध्यायकी भावना ही इसे करने में समर्थ है ॥१०९॥
जो स्वाध्यायकी भावनामें लीन रहता है वह दूसरोंको भी उपदेश करता है किन्तु जो स्वयं अज्ञानी है वह किसी अन्य भव्यका भी क्या उपकार कर सकता है ? ऐसी स्थितिमें परको उपदेश देनेपर इसे क्या लाभ है, यह कहते हैं-
.. गा०-टी०-अपने और दूसरोंके उद्धारके उद्देशसे जो स्वाध्यायमें लगता है वह अपने भी कर्मोको काटता है और उसमें उपयुक्त दूसरोंके भी कर्मोको काटता है। सर्वज्ञ भगवानकी जो आज्ञा है कि कल्याणके इच्छुक जिन शासनके प्रेमीको नियमसे धर्मोपदेश करना चाहिये, उसका भी पालन होता है। दूसरोंको उपदेश करने पर वात्सल्य और प्रभावना होती है। जिन वचनके अभ्याससे जिन वचनमें भक्ति प्रदर्शित होती है। दूसरोंको उपदेश करनेपर मोक्षमार्ग अथवा श्रुतरूप तीर्थकी अव्युच्छित्ती-परम्पराका अविनाश होता है। श्रुत भी रत्नत्रयके कथनमें संलग्न होनेसे तीर्थ है । अतः स्वाध्याय पूर्वक परोपदेश करनेसे श्रुत और मोक्षमार्गका विच्छेद नहीं होता। वे सदा प्रवर्तित रहते हैं ॥११०॥ .
लिंग स्वीकार करनेके पश्चात् ज्ञानरूप सम्पदाका संचय करना चाहिये । और ज्ञान सम्पदाका संचय करते हुए विनय करनी चाहिये । उसके पाँच भेद हैं-उन्हें कहते हैं
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