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भगवती आराधना
ह्यसति बंधे मोक्षोऽस्ति । स च वंधो नासत्यास्रवे । मोक्षस्य चोपायौ संवरनिर्जरे। अहितं इति यदि दुःखं गृह्यते तदैहलौकिकमनुभवसिद्धमेव । किं तत्र जिनवचनेन ? अहितकारणं यद्यहितमुच्यते तत्कर्म तच्चात्राजीववचनेन आक्षिप्तं । अथ हिंसादयः परंपराकारणत्वेन दुःखस्यावस्थिताः अहितशब्देनोच्यन्ते । तथाप्ययुक्तं आस्त्रवेऽन्तर्भूतत्वात् । अत्रोच्यते-अनुभूतमपि दुःखं अस्मिजन्मनि जडमतयो विस्मरंत्यत एव सन्मार्ग न ढोकते । तेषां स्मृतिर्जन्यते जिनवचनेन मनुजभवापदां प्रकटनेन । जुगुप्सिते कुले प्रादुर्भूतिविचित्रास्तत्र रोगोरगदशनजनिता विपदः । निर्द्रविणता, दुर्भगता, अबंधुता, अनाथता, प्रार्थितद्रविणपरांगनालाभधूमध्वजनिर्दग्धचित्तता, द्रविणवतां कुत्सितप्रेषणकरणं, तथापि तेषां आक्रोशननिर्भर्त्सनताडनादीनि, परवशतामरणादीन्येवमादिना, इह लोके हितं दानतपःप्रभृतिक हितकारणं हितं इति यदा गृह्यते 'हितमारण्यमौषधं' इति यथा । यतो दानादिके कुशलकर्मणि वर्तमाना जनैः स्तूयंते वंद्यन्ते । उक्तं च
दानेन तिष्ठन्ति यशांसि लोके दानेन वैराण्यपि यान्ति नाशम् ।।
परोऽपि बंधुत्वमुपैति दानात्तस्मात्सुदानं सततं प्रदेयम् ॥” इति ।-[वरांच० ७॥३६] इंद्रचक्रवरादयोऽपि प्रणतिमायान्ति तपोद्रविणानाम् । परलोके अहितं भवान्तरभाविदुःखं नरकगती हि, तिर्यक्त्वे च, परलोके हितं निवृतिसुखं, तदेत्सकलं अवबोधयति जैनी भगवती भारती। द्रव्यकर्मरूप होते हैं और उनका विनाश मोक्ष है। वह मोक्ष बन्धपूर्वक होता है। क्योंकि वन्धके अभावमें मोक्ष नहीं होता । तथा वन्ध आस्रवके विना नहीं होता। और मोक्षके उपाय संवर और निर्जरा हैं।
शंका-यदि अहितसे दुःख लेते है तो इस लोकमें होनेवाला दुःख अनुभवसे सिद्ध है। उसमें जिनवचनकी क्या आवश्यकता ? यदि अहितके कारणको अहित कहते हैं तो वह कर्म है और अजीव शब्दसे उसका ग्रहण होता है। यदि परम्परासे दुःखका कारण होनेसे हिंसा आदिको अहित शब्दसे लेते हैं तो भी अहितका पृथक् कथन अयुक्त है क्योंकि आस्रवमें उनका अन्तर्भाव होता है।
समाधान-इस जन्ममें अनुभूत भी दुःखको अज्ञानी भूल जाते हैं इसीसे वे सन्मार्गमें नहीं लगते । जिनवचनके द्वारा मनुष्य भवमें होनेवाली विपत्तियों को बतलानेसे उनका स्मरण होता है। निन्दनीय कुलमें जन्म होनेपर वहाँ रोगरूपी साँपके डसनेसे उत्पन्न हुई विपत्तियाँ आती हैं। दरिद्रता, भाग्यहीनता, अबन्धुता, अनाथता, इच्छित धन और पर स्त्रीकी प्राप्ति न होने रूप अग्निसे चित्तका जलते रहना, धनिकोंकी निन्दनीय आज्ञाका पालन करनेपर भी उनके गाली; गलौज, डाँट फटकार, मारपीट, परवश मरण आदिको सहना पड़ता है।
जब हितका अर्थ हितका कारण लिया जाता है तो इस लोकमें दान, तप आदि हित हैं । जैसे जंगली औषधी हितका कारण होनेसे हित कही जाती है क्योंकि जो दान आदि सत्कार्य करते हैं लोग उनकी स्तुति और वन्दना करते हैं। कहा भी है-'दानसे लोकमें चिरस्थायी यश होता है। दानसे वैर भी नष्ट हो जाते हैं। दानसे पराये भी बन्धु हो जाते हैं। अतः सुदान सदा देना चाहिए ॥' तपोधनोंको इन्द्र चक्रवर्ती आदि भी नमस्कार करते हैं। परलोकमें अहितसे मतलब है आगामी नरकगति और तिर्यञ्चगतिके भवमें होनेवाला दुःख । और परलोकमें हितसे मतलब है मोक्षसुख । जिन भगवान्के द्वारा उपदिष्ट भारती इन सबका ज्ञान कराती है ॥१००॥
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