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विजयोदया टीका
१२७ बाधा स्थितैव । भूमिदरीविवरस्थितानां पिपीलिकादीनां मृतेः, तरुणतृणपल्लवानां चोष्णांबुभिस्तप्तानां दुःखासिका महती जायते, तथा क्षारतया धान्यरसादीनां । न चास्ति प्रयोजनं स्नानेन सप्तधातुमयस्य देहस्य न सुचिता शक्या करें । ततो न शौचप्रयोजनं । न रोगापहृतये रोगपरीषहसहनाभावप्रसंगात्, न हि भूषार्य विरागत्वात् ।
घृततैलादिभिरभ्यंजनमपि न करोति प्रयोजनाभावादुक्तेन प्रकारेण घृतादिना क्षारेण स्पृष्टा भूम्यादिशरीरादि जंतवो बाध्यते । प्रसाश्च तत्रावलग्नाः । उद्वतने इतस्ततः पततां व्याघातः । मूलत्वक्फलपत्रादेः पेषणे, दलने च महानसंयम: 1 निर्वर्तनविलेखनघर्षणरंजनादिको नखसंस्कारः। केशसंस्कारो हस्तघर्षणेन मसणतासंपादनं, तथा श्मश्रणामपि । दंतमलापकर्षणं तद्रंजनं वा दंतसंस्कारः। ओष्ठमलापकर्पणं तद्रागकरणं वा ओष्ठसंस्कारः । हस्वयोलंबतापादनं दीर्घयोर्वा हस्वकरणं तन्मलनिरासोऽलंकारग्रहणं कर्णसंस्कारः । मखस्य तेजःसंपादनं लेपेन मंत्रेण वा मखसंस्कारः । अक्ष्णोः प्रक्षालनं अंजनं अक्षिसंस्कारः। विकटोत्थितानां रोम्णां उत्पाटनं आनुलोम्यापादनं लंबयोरुन्नतीकरणं, मरूसंस्कारः । शोभाथं हस्तपादादिप्रक्षालनं, औषधविलेपादिसंस्कार आदिशब्देन गृहीतः ॥९२॥
वज्जेदि बंभचारी गंधं मल्लं च धूववासं वा । संवाहणपरिमद्दणपिणिद्धणादीणि य विमुत्ती ॥ ९३ ॥
लिए शीतल जलसे स्नान नहीं करते ।
शंका-तब गर्म जलसे स्नान करना चाहिए ?
समाधान-उसमें भी त्रस और स्थावर जीवोंको बाधा रहती ही है । पृथिवी तथा पहाडके बिलोंमें रहनेवाली चींटी आदिके मरनेसे और उष्णजलके तापसे कोमल तृण पत्ते आदिके झुलसनेसे बड़ा दुःख होता है। तथा जलके खारपनेसे धान्यके रसको भी हानि पहुंचती है। तथा स्नानकी कोई आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि सप्तसाधुओंसे युक्त शरीरको पवित्र नहीं किया जा सकता । अतः पवित्रताको दृष्टिसे स्नानका कोई प्रयोजन नहीं है। रोगको दूर करनेके लिए भी स्नान आवश्यक नहीं है क्योंकि तब साधु रोगपरीषह सहन नहीं कर सकेंगे। और शरीरकी शोभाके लिए भी स्नान आवश्यक नहीं है क्योंकि साधु तो विरागी होते हैं।
साधु प्रयोजन होनेसे घी तेल आदिसे शरीरका अभ्यंजन भी नहीं करते। क्योंकि कहे हुए अनुसार घी आदिसे तथा क्षारसे भूमि आदि तया शरीर आदिमें चिपटे जीवोंको बाधा पहुँचती है । उद्वर्तन अर्थात् उबटन लगानेसे शरीरसे चिपटे त्रसजीव यहाँ वहाँ गिरकर मर जाते हैं। तथा उबटन तैयार करनेके लिये वृक्षकी जड़, छाल, फल पत्ते आदिको पीसने या दलने में महान असंयम होता है । काटना, छाटना, रगड़ना, रंगना आदि नखका संस्कार है। हाथसे घर्षणके द्वारा चिकनापना लाना केश तथा दाढी मूछोंका संस्कार है। दाँतका मैल दूर करना अथवा दाँतोंको रंगना दाँतका संस्कार है । ओठोंका मल दूर करना अथवा उनको रंगना ओष्ठ संस्कार है । यदि छोटे हो तो बड़ा करना और बड़े हों तो छोटा करना, मेल निकालना अथवा आभूषण धारण करना कानका संस्कार है । लेप या मंत्र द्वारा मुखको तेजस्वी बनाना मुखका संस्कार है। आँखोंको धोना, अंजन लगाना आँखका संस्कार है । विकट रूपसे उठे हुए रोमोंको उखाड़ना और उन्हें व्यवस्थित करना तथा लटकती हुईको ऊँचा करना भौंका संस्कार है । आदि शब्दसे शोभाके लिये हाथ पैर धोना, अथवा औषध आदिका लेप करना, ग्रहण किये गये हैं ।। ९२ ॥
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