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भगवती आराधना
लेखनोऽस्यान्महतो जीवान्कथमिव बाधितुं उत्सहते इति । 'संजदपडिरूवदा चैव' । संयतानां 'प्राक्तनानां प्रतिबिंबता च प्रतिलेखना ग्रहणेन भवति ॥९६॥
प्रतिलेखनलक्षणाख्यानायाह
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रयसेयाणमगहणं मद्दव सुकुमालदा लघुत्तं च । जत्थेदे पंच गुणा तं पडिलिहणं पसंसंति ॥ ९७ ॥
'रजसेदाणमगहणं' रजसः सचित्तस्य अचित्तस्य वा स्वेदस्य अग्राहकं । अचित्तरजोग्राहिणा सचित्त रजो प्रतिलेखने तद्विराधना सचित्तर जो ग्राहिणा चेतरस्य । स्वेदग्राहिणि रजसामुपहतिः । 'मद्दवसु कुमालदा ' मृदुस्पर्शता मार्दवं, सुकुमालदा सौकुमार्यं । 'लघुत्तं च' लघुत्वं च । एते पंच गुणाः यत्रैते पंच प्रकारगुणाः संति 'तं' तत् 'प्रडिलिहणं' प्रतिलेखनं 'पसंसंति' स्तुवंति दयाविधिज्ञाः । अमृदुना, असुकुमारेण गुरुणा च प्रतिलेखनेन जीवानामुपघात एव कृतो न दयेति भावः । एवं चतुर्गुणयुक्तं लिंगं व्याख्यातं गृहीतलिंगस्य यतेः ॥९७॥ शिक्षानंतरेति तन्निरूपणार्थं उत्तरप्रबंधः -
णिउणं विउलं सुद्धं णिकाचिदमणुत्तरं च सव्वहिंदं । जिणवयणं कलुसहरं अहो य रत्ती य पढिदव्वं ॥ ९८ ॥
गाथासे सम्बन्ध है | अपनी प्रतिज्ञामें पीछी चिह्न होती है । और प्रतिलेखना रूप लिंग मनुष्योंको विश्वास करानेवाला है । और प्राचीन मुनियोंका प्रतिबिम्ब रूप है ॥९६॥
टी० - मुनिका पक्ष या प्रतिज्ञा सब जीवोंपर दया करना है । अतः पीछी उसका चिह्न है । तथा यह चिह्न मनुष्योंमें विश्वास उत्पन्न कराता है कि जब यह व्यक्ति अतिसूक्ष्म कीट आदि जीवोंकी भी रक्षाके लिये पीछी लिये हुए है तो हमारे जैसे बड़े जीवोंको कैसे बाधा पहुँचा सकता है । तथा पीछी धारण करनेसे प्राचीन मुनियोंका जो रूप था उसीकी छाया वर्तमान मुनियों में आ जाती है || ९६ ॥
प्रतिलेखनाके लक्षण कहते हैं
गा०-- धूलि और पसीने को पकड़ती न हो, कोमल स्पर्शवाली हो, सुकुमार हो, और हल्की हो । जिसमें ये पाँच गुण होते हैं उस प्रतिलेखनाकी प्रशंसा करते हैं ॥९७॥
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टी० - सचित्त या अचित्त रज और पसीनेको ग्रहण न करती हो; क्योंकि अचित्त रजको ग्रहण करनेवाली पीछी से सचित्त रजकी प्रति लेखना करनेपर उनमें रहनेवाले जीवोंका घात होता है और सचित्त रजको ग्रहण करनेवाली पीछीसे अचित्त रजकी प्रतिलेखना करने पर भी घात होता है। पसीनेको पकड़नेवाली पीछीसे रजमें रहनेवाले जीवोंका घात होता है । तथा पीछी कोमल स्पर्शवाली, सुकुमार और हल्की होनी चाहिये । जिस प्रतिलेखनमें ये पाँच गुण होते हैं, दयाकी विधिको जाननेवाले उसकी प्रशंसा करते हैं । इसका भाव यह है कि कठोर, असुकुमार और भारी प्रतिलेखनासे जीवोंका घात ही होता है, दया नहीं । इस प्रकार लिंगको स्वीकार करनेवाले साधुके चार गुणोंसे युक्त लिंगका कथन किया ||९७||
१. प्रधानानां -आ० मु० ।
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