________________
१२८
भगवती आराधना 'गंध' कस्तूरिकादिकं । 'मल्लं' माल्यं चतुष्प्रकारं । 'धूववासं वा' धूपं कालागुर्वादिकं । वासं मुखवासं च जातिफलादिकं । अनेकसुरभिद्रव्यमिश्रं वा । 'संवाहणं' हस्ताभ्यां मलनं । चरणावमईनं परितः 'परिमईनं' । अंसकुट्टनं उन्नति दाढ्यं च कतु यत्तत्पिणिद्धमित्युच्यते । एतत्सर्व वर्जयति प्रयोजनाभावाद्धिसाप्रवृत्तेश्च । कः ? ब्रह्मचारी अब्रह्म निवृत्तिपरो यतिः ॥१३॥ किं ब्रह्मव्रतस्य कुर्वन्ति स्नानादिपरित्यागाः येन तद्वताचरणप्रियस्तदनुष्ठाने यतते इत्यारेकायामाह
जल्लविलित्तो देहो लुक्खो लोयकदवियडबीभत्थो ।
जो रूढणक्खलोमो सा गुत्ती बंभचेरस्स ॥९४।। 'जल्लविलित्तो देह' इति । 'देहो गुत्ती बंभचेरस्स' इति पदघटना । 'देहः' शरीरं । 'गुत्तो' गुप्तिः रक्षा। कोदृक् ? 'जल्लविलित्तो' घनीभूतमुपर्युपरि प्रचितं शरीरमलं जल्लशब्देनोच्यते । तेन विलित्तो विलिप्तः देहः । स्नानादित्यागात् 'रुक्खो' रूक्षस्पर्शः स्नानादिविरहादेव 'लोचकदविगदबीभत्थो' लोचकरणविकृतबीभत्सः । 'जो' यो देह 'रूढणक्खलोमो' दीर्धीभूतनखप्रच्छाद्यदेशलोमान्वितः । सेति गुप्तिः ॥ सामानाधिकरण्यात् स्त्रीलिंगत्वात् ॥ कस्य ? 'बंभचेरस्स' ब्रह्मचर्यस्य ।।
इति व्युत्सृष्टदेहता ॥
गा-ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ गन्ध, माल्य और धूप और मुखवास संवाहन, परिमर्दन और पिणिद्धण आदिको छोड़ देता है ॥ ९३ ॥
टी-ब्रह्मचारी अर्थात् अब्रह्मके त्यागमें तत्पर साधु कस्तूरी आदि गंध, चार प्रकारको माला (पुष्पमाला, रत्नमाला, मोतीमाला और सुवर्णमाला) कालागुरु आदि धूप, मुखको सुवासित करने वाले जाति फल आदि, अथवा अनेक सुगन्धित द्रव्योंका मिश्रण, हाथोंसे शरीरकी मालिश, पैरोंसे शरीरको दबवाना, और पिणिद्ध, इन सबको प्रयोजन न होनेसे और हिंसापरक होनेसे छोड़ देता है। कन्धों को उन्नत और दृढ़ बनानेके लिये जो उनको कूटा जाता है उसे 'पिणिद्धण' कहते हैं । ९३ ॥
ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करने वालेको स्नान आदिके त्यागसे क्या लाभ होता है जिससे ब्रह्मव्रतके आचरणका प्रेमी स्नान आदिके त्यागको अपनाता है, इस शङ्काका उत्तर देते हैं
गा-जल्लसे लिप्त, रूक्ष, लोच करनेसे विकृत और वीभत्स, बढ़े हुए नख और रोमों से युक्त जो शरीर होता है, ब्रह्मचर्यकी वह गुप्ति है ॥१४॥
टो०--शरीरपर चढ़ा हुआ मैलपर मैल जल्ल कहाता है। स्नान आदिका त्याग करनेसे यतिका शरीर मैलसे लिपता जाता है। तथा स्नान आदि न करनेसे रुखा हो जाता है। केश लोच करनेसे भद्दा और ग्लानि युक्त होता है उसे देखकर लोगोंको ग्लानि होती है। नख बढ़े हुए होते हैं। गुप्त अंग आदिके बाल बढ़ जाते हैं। ऐसा शरीर ब्रह्मचर्यकी गुप्ति है । उससे यतिके ब्रह्मचर्यकी रक्षा होती है। 'गुप्ति' शब्द स्त्रीलिंग होनेसे सामानाधिकरण्यके लिये 'सा' शब्दका प्रयोग किया है ॥९४।।
व्युत्सृष्ट शरीरताका प्रकरण समाप्त हुआ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org