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विजयोदया टीका
जिंणवयणं जिनवचनं । 'अहो य रत्तो य' नक्तं दिवं । 'पढिदव्वं' अध्येतव्वं । कीदृग्भूतं जिनप्रवचनमत आह–'निउणं' जीवादीनर्थान्प्रमाणनयानुगतं निरूपयतीति निपुणं । 'सुद्ध पूर्वापरविरोधपुनरुक्तादिद्वात्रिंशद्दोषवर्जितत्वात् शुद्धं । 'विपुलं' निक्षेपः, 'एकार्थः, निरुक्तिः अनुयोगद्वारं, नयश्चेति अनेकविकल्पेन जीवादीनन्सिप्रपंचं निरूपयतीति विपुलं । अर्थगाढत्वान्निकाचितं अर्थनिचित । 'अणुत्तरं च न विद्यते उत्तरं उत्कृष्टमस्मादित्यनुत्तरं । परेषां वचनानि पुनरुक्तानि, अनर्थकानि, व्याहतानि, प्रमाणविरुद्धानि च तेभ्य इदमुत्तरं तदसंभविगुणत्वात् । 'सवहिदं' सर्व प्राणहितं । अन्येषां मतानि केषांचिदेव रक्षा सूचयति । 'जिघांसन्तं जिघांसीयात् न तेन ब्रह्महा भवेत्' इत्युपदेशात् ।
कलुसहरं द्रव्यकर्मणां ज्ञानावरणादीनां अज्ञानादेर्भावमलस्य च विनाशनात् कलुषहरं । 'अहो य रत्तीय पढियन्वमित्यनेन' अनारतं अध्ययनं सूचितं ॥९८॥
अव शिक्षाका कथन करते हैं
गा०-निपुण विपुल, शुद्ध, अर्थसे पूर्ण, सर्वोत्कृष्ट और सब प्राणियोंका हित करनेवाला द्रव्यकर्म भाव कर्मरूपी मलका नाशक जिनवचन रात-दिन पढ़ना चाहिये ॥९८॥
टो०-जिनवचन रात-दिन पढ़ना चाहिये। किस प्रकार जिनवचन पढना चाहिये ? इसके उत्तरमें कहते हैं जो निपुण हो अर्थात् जीवादि पदार्थोंका प्रमाण और नयके अनुसार निरूपण करनेवाला हो । पूर्वापर विरोध पुनरुक्तता आदि बत्तीस दोषोंसे रहित होनेसे शुद्ध हो। विपुल हो अर्थात् निक्षेप, निरुक्ति अनुयोगद्वार और नय इन अनेक विकल्पोंसे जो जीवादि पदार्थोंका विस्तार से निरूपण करता हो। निकाचित अर्थात अर्थसे भरपुर हो। अनुत्तर अर्थात जिससे कोई उत्तर यानी उत्कृष्ट न हो। दूसरोंके वचन पुनरुक्त, निरर्थक, बाधित और प्रमाण विरुद्ध हैं अतः उनसे जिनवचन उत्कृष्ट हैं क्योंकि जो गुण उनमें सम्भव नहीं है उन गुणोंसे युक्त है। सब प्राणियोंका हितकारी है। दूसरोंके मत तो किन्हीं की ही रक्षा सूचित करते हैं। कहा है-वेदका जाननेवाला भी ब्राह्मण यदि किसीको मारता हो तो उसे मार डालना चाहिये । उससे ब्रह्म हत्याका पाप नहीं लगता। तथा ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म और अज्ञानादिभावमलका विनाश करनेसे जिनवचन पापका हरनेवाला है। उसे 'रात-दिन पढ़ना चाहिये' इससे निरन्तर अध्ययन करना सूचित किया है ॥९८॥
१. पक्षार्थः -आ० मु० । २. आ० मु० प्रत्योअधोलिखिताश्लोकाः स ।
"यज्ञार्थं पशवः सृष्टा स्वयमेव स्वयंभुवा ।। यज्ञो हि भूत्यै सर्वेषां तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥ १॥ "अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः ॥ क्षेत्रदारहरश्चेति षडेते आततायिनः ॥" "आततायिनमायांतमपि वेदांतविद् द्विजम् ॥ जिघांसंतं जिघांसीयान्न तेन ब्रह्महा भवेत् ॥"
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