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विजयोदया टीका 'अणादरो विसयदेहसुक्खेसु' विषयजनितेष शरीरसुखेषु प्रेताकारस्य किं मम वामलोचनाविलोकितेन, तासां कलगीतश्रवणेन, ताभिर्जुगुप्सनीयशरीरस्य का वा रतिक्रीडेति भावना चैवानादरः । अथवा शरीरसुखे विषयसुखे चानादरः । विषयसुखव्यतिरेकेण न शरीरसुखं, नाम किंचिदिति चेद्-शारीरदुःखाभावः शरीरसुखं, इंद्रियविषयसन्निधानजनिता प्रीतिविषयसुखमिति महाननयोर्भेदः।
'सम्वत्थ' सर्वस्मिन्देशे । 'अप्पवसदा' आत्मवशता । स्वेच्छया आस्ते, गच्छति; शेते वा । इहासनादिकरणे इदं मम विनश्यति वस्त्विति तदनरोधकता परतंत्रता नास्ति संयतस्य । परिग्रहविनाशभीरुरात्मनोऽयोग्येऽपि स्थाने उद्गमादिदोषोपहते प्राणिसंयमविनाशकारिणि वा आसनस्थानशयनादिकं संपादयति । त्रसस्थावरवाधामावहता वर्त्मना वा व्रजति । एतद्दोषपरिहारोऽसंगस्य भवति ।।
'परिसह अधियासणा चेव' पूर्वोपात्तकर्मनिर्जराथिना यतिना सोढव्याः परीषहाः नियोगेन क्षुधादयो बाधाविशेषाः द्वाविंशतिप्रकाराः । तत्रायं सामान्यवचनोऽपि परीषहशब्दः प्रकरणादचलाख्यात्तदनुरूपपरीषहवृत्तिाह्यः । तेन नाग्न्यशीतोष्णदंशमशकपरीषहसहन मिह कथितं भवति । सचेलस्य हि सप्रावरणस्य न तादशी शीतोष्णदंशमशकजनिता पीडा यथा अचेलस्येति मन्यते ॥८३॥ अचेलताया गुणान्तरसूचनाय गाथा
जिणपडिरूवं विरियायारो रागादिदोसपरिहरणं । इच्चेवमादिबहुगा अच्चेलक्के गुणा होति ॥८४||
टी०-नग्न मुनिको देखकर लोग सोचते हैं-ये तो परिग्रह रहित है, ये कुछ ग्रहण नहीं करते। ये परका घात करने वाले शास्त्र आदि भी छिपाकर नहीं रख सकते । ये तो विरूप है इनमें हमारी स्त्रियाँ भी राग नहीं कर सकती। इस प्रकारका विश्वास पैदा होता है। मेरा रूप तो प्रेतके समान है मुझे स्त्रियोंको ताकने, और उनके मनोहर गीतोंको सुननेसे क्या प्रयोजन ? अथवा इस ग्लानिभरे शरीरका उनके साथ कैसो रति क्रीड़ा । इस प्रकारकी भावना शारीरिक सुखमें अनादर है । अथवा शरीर सुख और विषय सुखमें अनादर ऐसा अर्थ भी होता है।
शङ्का-विषयसुखसे भिन्न शारीरिक सुख नहीं है ?
समाधान-शारीरिक दुःखके अभावको शरीर सुख कहते हैं और इन्द्रियोंके विषयोंके सम्बन्धसे उत्पन्न हुई प्रीति विषय सुख है। इन दोनोंमें महान् अन्तर है।
सब देशमें आत्माधीनता रहती है। अपनी इच्छानुसार बैठता है, जाता है, सोता है। यहाँ आसन आदि करनेपर मेरा यह नुकसान होगा, इस प्रकार की परतंत्रता साधुके नहीं होती। परिग्रहके नाशके भयसे परिग्रही साधु उद्गम आदि दोषोंसे युक्त और प्राणिसंयमका विनाश करने वाले अयोग्य स्थानमें भी आसन, स्थान, शयन आदि करता है। अथवा त्रस और स्थावर जीवोंको बाधा पहुँचाने वाले मार्गसे गमन करता है । किन्तु परिग्रह रहित साधु इन दोषोंसे बचा रहता है । साधुको पूर्व संचित कर्मा के निर्जराके लिये नियमसे भूख प्यासकी बाधा आदि रूप बाईस परोषहोंको सहना चाहिये । यहाँ यह परीषह शब्द यद्यपि सामान्यवाची है फिर भी प्रकरणवश अचेलताका प्रकरण होनेसे उसके अनुरूप परीषह ग्रहण करना चाहिये । अतः यहाँ नाग्न्य, शीत, उष्ण, और दंशमशक परीषहोंका सहन कहा है । जो साधु सवस्त्र है कपड़ा ओढ़े हुए हैं उन्हें शीत उष्ण और डासमच्छरसे होने वाली वैसी पीड़ा नहीं होती जैसी वस्त्र रहितको होती है ।।८।।
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