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विजयोदया टीका
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जगत्प्रत्यय' इति । सकलसंगपरिहारो मार्गो मुक्तेः इत्यत्र भव्यानां श्रद्धां जनयति लिगमिति जगत्प्रत्यय इत्यभिहितं । न चेत्सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तिलिंगं किमिति नियोगतोऽनुष्ठीयते इति ।
'आदिठिदिकरणं' आत्मनः स्वस्य अस्थिरस्य स्थिरतापादनं । क्व? मुक्तिवमनि व्रजने । कि मम परित्यक्तवसनत्य रागेण, रोषेण, मानेन, मायया, लोभेन बा। वसनाग्रेसराः सर्वा लोकेऽलंक्रियाः तच्च निरस्तं । को मम रागस्थावसर इति । तथा परिग्रहो निबंधनं कोपस्य । तथा हि-पित्रा सुतो युध्यते धनाथितया ममेदं भवति तवेदमिति । तत्किमनेन स्वजनरिणा रिक्थेन, लोभ, मायां संपाद्य, दुर्गतिं च वर्द्धयता इति सकलः परित्यक्तो वसनपुरःसरः परिग्रहो रोषविजितये । हसति च मां परे साधवो रोषमुपयातं । क्वेयमवसनता मुमुक्षोः क्वायमस्य कोपहताशनः ज्ञानजलसेकपरिवृद्धतपोवनविनाशनबद्धविभ्रमः इति । तथा च माया धनार्थिभिः प्रयुज्यते सा च तिर्यग्गति प्रापयतीति भीत्वा मायोन्मूलनायवेदमनुष्ठितं । 'गिहिभावविवेगोवि' य गृहित्वात्पृथग्भावो दर्शितो भवति ।।८१।।
__गंथच्चाओ लाघवमप्पडिलिहणं च गदभयत्तं च ।
संसज्जणपरिहारो परिकम्मविवज्जणा चेव ।।२।। 'गंथच्चागो' परिग्रहत्यागः । 'लाघवं' हृदयसमारोपितशैल इव भवति परिग्रहह्वान् । कथमिदमन्ये भ्यश्चौरादिभ्यः पालयामि इति दुर्धरचित्तखेदवि गमाल्लघुता भवति ।
प्रत्ययसे श्रद्धाका बोध होता है । यहाँ भी प्रत्ययका अर्थ श्रद्धा है। जगतकी श्रद्धा ।
शङ्का--श्रद्धा प्राणिका धर्म है । और अचेलता आदि लिंग शरीरका धर्म है। तब आप कैसे कहते हैं—लिंग जगत प्रत्यय है ? ।
समाधान'समस्त परिग्रहका त्याग मुक्तिका मार्ग है' इसमें लिंग भव्यजीवोंकी श्रद्धा उत्पन्न करता है इसलिये लिंगको जगत प्रत्यय कहा है। यदि सकल परिग्रहका त्याग मुक्तिका लिंग न हो तो क्यों उसे नियमपूर्वक किया जायगा। 'आदठिदिकरण' का अर्थ है अपनी अस्थिर आत्माको स्थिर करना। किसमें ? मुक्तिके मार्गमें चलने में । जब मैंने वस्त्र ही त्याग दिया तो मुझे राग, रोष, मान, माया, लोभसे क्या प्रयोजन ? लोकमें सब अलंकरण वस्त्रमूलक होते हैं। वह मैंने त्याग दिया तो मुझे रागसे क्या प्रयोजन । तथा परिग्रह क्रोधका कारण है। देखो, धनकी अभिलाषासे पुत्र पितासे लड़ता है यह मेरा है यह तेरा है। तब अपने परिवारके वैरी इस धनसे क्या ? यह लोभ और मायाको उत्पन्न करके दुर्गतिको बढ़ाता है। इसीसे रोषको जीतनेके लिये मैंने वस्त्रपूर्वक सब परिग्रहका त्याग कर दिया। जब मुझे रोष होता है तो दूसरे साधु मुझपर हंसते हैं । कहाँ मुमुक्षुको यह नग्नता और कहाँ क्रोधरूपी अग्नि । यह तो ज्ञानरूपी जलके सिंचनसे फले-फूले तपोवनको नष्ट करने वाला है । तथा धनके इच्छुक मायाचार करते हैं । वह तिर्यञ्च गतिमें ले जाता है इस भयसे मायाका उन्मूलन करनेके लिये हो मैंने यह लिंग धारण किया है। तथा लिंग ग्रहण करनेसे गृहस्थपनेसे भिन्नता दीखती है ।। ८१ ॥
गा०-परिग्रहत्याग लाघव अप्रतिलेखन और भय रहितपना, सम्मूर्छन जीवोंका बचाव और परिकर्मका त्याग ये गुण लिंगमें होते हैं ॥८२।।
१. लोभं आयासं पापं दुर्गति-आ० मु० ।
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