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भगवती आराधना नन्वहस्य रत्नत्रयभावनाप्रकर्षेण मृतिरुपयुज्यते किममुना लिंगविकल्पोपादानेनेत्यस्योत्तरमाह
जत्तासाधणचिह्णकरणं खु जगपच्चयादठिदिकरणं ।।
गिहभावविवेगो वि य लिंगग्गहणे गुणा होंति ॥ ८१ ॥ 'जत्तासाधणचिण्हकरणं' यात्रा शरीरस्थितिहेतुभूता भुजिक्रिया। तस्याः साधनं यल्लिगजातं चिन्हजातं तस्य करणं । न हि गृहस्थवेषेण स्थितो गुणीति सर्वजनताधिगम्यो भवति । अज्ञातगुणविशेषाश्च दानं न प्रयच्छति । ततो न स्याच्छरीरस्थितिः । असत्यां तस्यां रत्नत्रयभावनाप्रकर्षः क्रमेणोपचीयमानो न स्यात् । विना तं न मुक्तिरित्यभिलषितकार्यसिद्धिरेव न स्यात् । गुणवत्तायाः सूचनं लिंगं भवति । ततो दानादिपरंपरया कार्यसिद्धिर्भवतीति भावः । अथवा यात्राशब्दो गतिवचनः । यथा देवदत्तस्य यात्राकालोऽयम् । गतिसामान्यवचनादप्ययं शिवगतावेव वर्तते, दारकं पश्यसीति यथा । यात्रायाः शिवगते: साधनं रत्नत्रयं तस्य चिह्नकरणं ध्वजकरणं ।
'जगपच्चयादठिदिकरणं' जगच्छब्दोऽन्यत्र चेतनाचेतनद्रव्यसंहतिवचनो 'जगन्नेकावस्थं युगपदखिलानंत विषयम्' इत्येवमादी । इह प्राणिविशेषवृत्तिः । यथा-'अर्हतस्त्रिजगद्वंद्यान्' इति । प्रत्ययशब्दोऽनेकार्थः । क्वचिज्ज्ञाने वर्तते यथा 'घटस्य प्रत्ययो' घटज्ञानं इति यावत् । तथा कारणवचनोऽपि 'मिथ्यात्वप्रत्ययोऽनंतः संसार' इति गदिते मिथ्यात्वहेतुक इति प्रतीयते । तथा श्रद्धावचनोऽपि 'अयं अत्रास्य प्रत्ययः' श्रद्धेति गम्यते । इहापि श्रद्धावृत्तिः । जगतः श्रद्धेति । ननु श्रद्धा प्राणिधर्मः अचेलतादिकं शरीरधर्मो लिंगम् । कमच्यते 'लिंगं
है तो पुरुषोंकी तरह वस्त्र त्याग नहीं करती ॥८०॥
जो योग्य होता है उसके रत्नत्रयकी भावनाका प्रकर्ष होने पर मरण हो जाता है तब लिंग का कथन करनेकी क्या आवश्यकता है । इसका उत्तर देते हैं
गा०-यात्राके साधन चिह्नका करना, जगतकी श्रद्धा, अपनेको स्थिर करना और गृहस्थतासे भिन्नता, ये चार लिंग ग्रहण करनेमें गुण होते हैं ।। ८१ ।।
- टी०-यात्राका अर्थ है शरीरकी स्थितिमें कारण भोजन करना । उसका साधन जो लिंग है उसका करना लिंग धारण करनेका पहला गुण है; क्योंकि जो ग्रहस्थके वेषमें रहता है उसे सारी जनता गुणी नहीं मानती और उसके बिना भोजन नहीं मिलता। और ऐसी स्थितिमें इच्छित कार्यकी सिद्धि नहीं होती । अतः लिंग गुणवत्ताका सूचक होता है। और उससे दान आदिकी परम्परासे कार्यकी सिद्धि होती है । अथवा यात्रा शब्द गतिवाचक है। जैसे देवदत्तका यह यात्राकाल है । इस गति सामान्यका वाचक होनेपर भी यहाँ यात्रा शब्द मोक्ष गतिमें ही लिया गया है । अतः यात्रा अर्थात् मुक्ति गतिका साधन जो रत्नत्रय है उसका चिह्नकरण अर्थात् ध्वजा फहराने रूप लिंग होता है । अन्यत्र जगत शब्द चेतन और अचेतन द्रव्योंके समुदायका वाचक है । जैसे 'एक साथ अनन्त विषयोंको लिये हुए जगत एक अवस्था वाला नहीं है' इत्यादि वाक्यमें जगतका उक्त अर्थ लिया गया है। किन्तु यहाँ जगतका अर्थ प्राणि विशेष है। जैसे 'तीनों जगतके द्वारा वन्दनीय अर्हन्त' इस वाक्यमें जगतका अर्थ प्राणि विशेष है। प्रत्यय शब्दके अनेक अर्थ हैं। कहीं ज्ञानके अर्थमें है जैसे घटका प्रत्यय अर्थात् घटका ज्ञान । तथा प्रत्यय शब्द कारण वाचक भी है । जैसे अनन्त संसारका प्रत्यय मिथ्यात्व है' ऐसा कहने पर मिथ्यात्व हेतुक अनन्त संसार है ऐसा ज्ञान होता है । तथा प्रत्यय शब्द श्रद्धावाचक भी है। जैसे 'इसका इसमें प्रत्यय है', यहाँ
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