________________
विजयोदया टीका परिप्रापणक्षमे मार्ग निर्मले स्थिताः, परानपि विनतान्विनेयान्प्रवर्तयन्तः आयतातिधवलज्ञानपृथुलदर्शनपक्ष्मलेक्षणाः, कुलीना, विनता, विभया, विमाना, विरागा, विशल्या, विमोहा, वचसि तपसि महसि वाऽद्वितीया इति भाषणं सूरिवर्णजननम् ।
___अधिगतश्रुतार्थयाथातथ्यात्मवाच्य वाचकानुरूपव्याख्यानाः, निरस्तनिद्रातंद्रीप्रमादाः, सुचरिताः, सुशीलाः, सुमेधसः, इत्याध्यापकवर्णजननम् ।
रत्नत्रयालाभादनंतकालं अयमनादिनिधनोऽपि भव्यजीवराशिर्न निर्वाणपुरमुपैति तल्लाभे च सकलाः संपदः सुलभाः इति मार्गवर्णजननम् ।
मिथ्यात्वपटलविपाटनपटीयसी, ज्ञाननैर्मल्यकारिणी, अशुभगतिगमनप्रतिबंधविधायिनी, मिथ्यादर्शनविरोधिनीति निगदनं समीचीनदृष्टेर्वर्णजननम् ।
सर्वज्ञतावीतरागते नाईति विद्य ते रागादिभिरविद्यया च अनुगताः समस्ता एव प्राणभृतः इत्यादिरहंतामवर्णवादः ।
स्त्रीवस्त्रगंधमाल्यालंकारादिविरहितानां सिद्धानां सुखं न किंचिदतीन्द्रियाणां तेषां समधिगतो न निबंधनमस्ति किंचिदिति सिद्धावर्णवादः । _स्वकल्पनाभिरयमहन्नेष सिद्धादिः इत्यचेतनस्य व्यवस्थापनायामपि दारिकाणां कृत्रिमपुत्र कव्यवहृतिरिव
अपेक्षा न करके कल्याणमें लगे रहते हैं, मोक्षपुरीको प्राप्त करानेमें समर्थ निर्मल मार्गमें स्थित होते हैं, दूसरे भी विनम्र शिष्योंको मोक्ष मार्गमें लगाते हैं, विस्तृत और अतिधवल ज्ञान और महान् दर्शनरूपी उनके नेत्र होते हैं । वे कुलीन, विनीत, निर्भय, मानरहित, रागरहित, शल्यरहित, मोहरहित होते हैं । वचनमें और तप तथा तेजमें अद्वितीय होते हैं इस प्रकार कहना आचार्यका वर्णजनन है।
उपाध्याय श्रुतके अर्थके ज्ञाता होनेसे वाच्य और वाचकके अनुरूप अर्थात् जिस शब्दका जो अर्थ है वही यथार्थ रूपसे व्याख्यान करते हैं। निद्रा, आलस्य और प्रमादसे दूर रहते हैं, वे अच्छे चरित, अच्छे शील और उत्तम मेघासे सम्पन्न होते हैं, ऐसा कहना उपाध्यायका वर्णजनन है । रत्नत्रयकी प्राप्ति न होनेसे यह अनादि निधन भी भव्य जीवराशि अनन्तकालसे मोक्षपुरीको नहीं जा पाती । उसके प्राप्त होनेपर सम्पूर्ण सम्पदाएं सुलभ हैं इस प्रकार मोक्षमार्गकी प्रशंसा करना मार्ग वर्णजनन है।
सम्यग्दर्शन मिथ्यात्व पटलको उखाड फेकनेमें समर्थ है, ज्ञानको निर्मल करता है, अशुभ गतिमें गमनको रोकता है, मिथ्यादर्शनका विरोधी है ऐसा कथन समीचीन दृष्टिका वर्णजनन हैं। अर्हन्त भगवान्में सर्वज्ञता और वीतरागता नहीं होती, सभी प्राणी रागादि और अज्ञानसे युक्त होते हैं इत्यादि कहना अहंन्तोंका अवर्णवाद है अर्थात् यह मिथ्यादोष लगाना है।
स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माला अलंकार आदिसे रहित सिद्धोंको कुछ भी सुख नहीं है। वे तो अतीन्द्रिय हैं उनको जाननेका कोई साधन नहीं है, ऐसा कहना सिद्धोंका अवर्णवाद है। अपनी कल्पनासे यही अर्हन्त है और ये सिद्ध आदि हैं इस प्रकार अचेतन पदार्थमें अर्हन्त आदिकी स्थापना करने पर भी जैसे बालिकाएँ खेलमें गुड्डा गुड्डी आदिमें पुत्रादिका काल्पनिक व्यवहार
१. या इव भूषणं सूरय इति सूरि-आ० मु०। २. वाच्यमध्यत्यनु-आ० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org