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विजयोदया टीका
'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमिति'। अथवाप्यधिकरणतव । अर्थानां जीवादीनां यानि तत्वानि अविपरांतानि रूपाणि तेषामश्रद्धानं यत्तन्मिथ्यात्वं इति संबंधः क्रियते । 'संसयिदं' संशयितं किंचित्तत्त्वमिति । तत्वानवधारणात्मक संशयज्ञानसहचारि अश्रद्धानं संशयितं । न हि संदिहानस्य तत्त्वविषयं श्रद्धानमस्ति इदमित्थमेवेति, निश्चयप्रत्ययसहभावित्वात् श्रद्धानस्य । 'अभिग्गहिदं' परोपदे'शाभिमुख्येन गृहीतं स्वीकृतं अश्रद्धानं अभिगृहीतमुच्यते । एतदुक्तं भवति । न संति जीवादीनि द्रव्याणि इति गृहाण संति जीवादीनि नित्यान्येवेति यदा परस्य वचनं श्रुत्वा जीवादीनां सत्वे अनेकांतात्मकत्वे चोपजातं अश्रद्धानं अरुचिमिथ्यात्वमिति । परोपदेशं विनापि मिथ्यात्वोदयादुपजायते यदश्रद्धानं तदनभिगृहीतं मिथ्यात्वं ॥५५॥ मिथ्यात्वदोपमाहात्म्यख्यापनायाह
जे वि अहिंसादिगुणा मरणे मिच्छत्तकडुगिदा होति ॥
ते तस्स कडुगदुद्धियगदं च दुद्धं हवे अफला ॥५६॥ 'जे वि' हिंसा नाम प्रमादवतः प्राणेभ्यो वियोगकरणं प्राणिनस्ततो निवृत्तिरहिंसा। असदभिधानाद्विरतिः सत्यम् । अदत्तादानाद्विरतिरस्तेयं मैथनाद्विरतिव्रह्म। ममेदं भावो मोहोदयजःपरिग्रहः । ततो निवृत्तिरपरिग्रहता। एते अहिंसादयो गुणाः परिणामा धर्म इत्यर्थः ।।
__ ननु सहभुवो गुणा इति वचनात् चैतन्यामूर्तत्त्वादीनामेवात्मनः सहभुवां गुणता। हिंसादिभ्यो विरतिअर्थमें रहता है। ऐसा प्रयोग भी देखा जाता है-जैसे तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। अथवा अन्य प्रकारसे भी अधिकरणता है-'अर्थ' अर्थात् जीवादिके, जो 'तत्त्व' अर्थात् अविपरीत रूप हैं उनका श्रद्धान न करना मिथ्यात्व है ऐसा सम्बन्ध किया जाता है।
तत्त्वका निर्णय न करने वाले संशय ज्ञानका सहचारी जो अश्रद्धान है वह संशयित मिथ्यात्व है। जो संदेहमें है उसके तत्त्वविषयक श्रद्धान नहीं है क्योंकि श्रद्धान 'यह ऐसा ही है' इस प्रकारके निश्चयात्मक ज्ञानके साथ ही रहता है। परोपदेशकी मुख्यतासे गृहीत अर्थात् स्वीकार किया गया अश्रद्धान अभिगृहीत कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि 'जीवादि द्रव्य नहीं हैं यह स्वीकार करो। या जीवादि हैं किन्तु नित्य ही हैं। इस प्रकार जब दूसरेके वचनको सुनकर जीवादिके अस्तित्वमें या उनके अनेकान्तात्मक होने में जो अश्रद्धान या अरुचि उत्पन्न हो वह अभिगृहीत मिथ्यात्व है और परोपदेशके बिना भी मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जो अश्रद्धान उत्पन्न होता है वह अनभिगृहीत मिथ्यात्व है।।५५।।
गा०-जो भी अहिंसा आदि गुण मरते समय मिथ्यात्वके द्वारा दूषित होते हैं, वे उस दूषित गुण वाले आत्माके कडुवी तूंबीमें रखे गये दूधकी तरह निष्फल होते हैं ।। ५६ ।।।
टो०-प्रमादवानके द्वारा प्राणिके प्राणोंका वियोग करना हिंसा है। उस हिंसासे निवृत्तको अहिंसा कहते हैं । असत् कहनेसे निवृत्तिको सत्य कहते हैं। बिना दी हुई वस्तुके ग्रहणसे विरतिको अचौर्य कहते हैं । मैथुन सेवनसे विरतिको ब्रह्मचर्य कहते हैं। मोहके उदयसे होने वाले 'यह मेरा है' इस प्रकारके भावको परिग्रह कहते हैं। उससे निवृत्तिको अपरिग्रह कहते हैं। ये अहिंसा आदि गुण अर्थात् अहिंसादि रूप परिणाम धर्म है।
शङ्का-जो द्रव्यके साथ होते हैं वे गुण हैं ऐसा वचन है। उसके अनुसार चैतन्य अमूर्तत्व १. यद्देशा-आ० मु०।
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