________________
भगवती आराधना
निर्यापकेन धर्मोपदेशश्चतुर्गतिपरिभ्रमणे दुःसहानि दुःखानि ननु कर्मपरवशतया भुक्तानि निष्फलानि । इदं पुनदुःखसहनं निर्जरार्थ प्रवर्त्यमानं सकलदुःखान्तं सुखमप्यतीन्द्रियमचलमनुपममव्याबाधात्मकं संपादयिष्यतीति क्रियमाणो दुःखनिवारणगुणसामान्यात कवच शब्देनोच्यते । यथा शौर्यप्रचिख्यापयिषया माणवके सिंहशब्दः प्रयुज्यमानः शौर्यादिगुणाध्यासितं देवदत्तमवगमयति । 'समदा' समभावः जीवितमरणलाभालाभसंयोगविप्रयोगसुखदुःखादिष रागद्वेषयोरकरणं । 'ज्झाणे' ध्यानं एकाग्रचितानिरोधः । 'लेस्सा लेश्या कषायानरंजिता योगप्रवृत्तिलेश्या । फलं' साध्यं परिप्राप्यं आराधनायाः । 'विजहणा' आराधकस्य शरीरत्यागः ॥६९॥
वाहिव्व दुप्पसज्झा जरा य सामण्णजोग्गहाणिकरी ॥
उवसग्गा वा देवियमाणुसतेरिच्छया जस्स ।। ७० ॥ 'वाहिव्व' । अत्र चैवं पदघटना। 'वाहिन्ध दुप्पसज्झा सो अरिहो होइ भत्तपदिग्णाए' इति । व्याधिर्वा दुःप्रसाध्यः कलेशेन महता संयमप्रचयावहेन चिकित्स्यः यस्य विद्यते सोझै भक्तप्रत्याख्यानं कतु । जीयंति विनश्यति रूपवयोवलप्रभृतयो गुणा यस्यामवस्थायां प्राणिनः सा जरा। 'सामण्णजोग्गहाणिकरो' श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः; तस्य भावः श्रामण्यं । श्रमणशब्दस्य पुंसि प्रवृत्तिनिमित्तं तपःक्रिया श्रामण्यं, तेन योगः संबंधः साध्यसाधनलक्षणस्तस्य हानि विनाशं करोति या सा जरा यस्य सोर्हति भक्तप्रत्याख्यानं विधातु ।
निर्यापकाचार्य जो धर्मोपदेश देते हैं-तूने चार गतियोंमें भ्रमण करते हुए दुःसह दुःख सहे और कर्मोके अधीन होकर भोगे जिनसे कोई लाभ नहीं। किन्तु इस समयका दुःख सहन निर्जराके लिए हैं, सब दुःखोंका अन्त करनेवाला है और अतीन्द्रिय, अचल, अनुपम तथा बाधारहित सुखको भी देगा । इस प्रकार दुःखको दूर करनेके गुणकी समानतासे उसे कवच शब्दसे कहा है । जैसे शौर्यका बखान करनेकी इच्छासे बालकमें प्रयुक्त सिंह शब्द शौर्य आदि गुणोंसे युक्त देवदत्तका बोध कराता है। वैसे ही यहाँ भी जानना।
जीवन, मरण, लाभ, हानि, संयोग, वियोग, सुख दुःख आदिमें रागद्वेष न करना समता है । एक विषयमें चिन्ताके निरोधको ध्यान कहते हैं। कषायसे अनुरक्त मन-वचनकायको प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं। आराधनाके द्वारा प्राप्त साध्यको फल कहते हैं। और अन्तमें आराधकके शरीर त्यागको विजहणा कहते हैं । इतने अधिकारोंसे भक्त प्रत्याख्यान मरणका कथन करेंगे ।।६९।।
उनमेंसे 'अर्ह' का कथन आगेकी गाथाके द्वारा करते हैं
गा०-जिसके दुष्प्रसाध्य व्याधि हो, अथवा श्रामण्यके सम्बन्धको हानि पहुंचानेवाली वृद्धावस्था हो अथवा देवकृत मनुष्यकृत और तिर्यञ्चकृत उपसर्ग हो वह भक्त प्रत्याख्यान करनेके योग्य है ॥७॥
___ दो०--दुःप्रसाध्य व्याधि हो, अर्थात् बड़े कष्टसे संयमके समूहका घात करके जिसका इलाज सम्भव हो वह भक्त प्रत्याख्यान करनेके योग्य होता है। जिस अवस्थामें प्राणीके रूप, वय, बल आदि गुण नष्ट हो जाते है उसे जरा कहते हैं। 'श्राम्यति' अर्थात् जो तपस्या करता है वह श्रमण है। श्रमणके भावको श्रामण्य कहते हैं। पुरुषमें श्रमण शब्दकी प्रवृत्तिमें निमित्त तपश्चरण श्रामण्य है। उससे योग अर्थात् साध्यसाधनरूप सम्बन्धकी हानि जो करती है अर्थात् जिसके होनेपर तपश्चरणकी साधना करना कठिन होता है वह वृद्धावस्था जिसके आ गई हो वह भक्त प्रत्याख्यान करनेके योग्य होता है। जिसका शारीरिक बल बुढ़ापेके कारण क्षीण हो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org