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भगवती आराधना घृतमित्यत्र एकीभूतं तैलं एकीभूतं घृतमित्यर्थः । समाधानं मनसः एकताकरणं शुभोपयोगे शुद्धे वा । अनियतक्षेत्रवासः अनियतविहारः । तद्धावः परिणामः [ त. सू. ५।४२ ] इति वचनात्तस्य जीवादेव्यस्य क्रोधादिना दर्शनादिना वा भवनं परिणाम इति । यद्यपि सामान्येनोक्तं तथापि यतेः स्वेन कर्तव्यस्य कार्यस्यालोचनमिह परिणाम इति गृहीतम् । उपधिः परिग्रहः । तस्य 'जहणा' त्यागः । 'सिदीय' श्रितिः श्रेणिः सोपानमिति यावत् । भावनाभ्यासः तत्र असकृत्प्रवृत्तिः ॥६६॥
सल्लेहणा दिसा खामणा य अससिट्ठि परगणे चरिया ।
मग्गण सुठ्ठिय उवसंपया य पडिछा य पडिलेहा ॥६७॥ 'सल्लेहणा' सम्यक्तनूकरणं । "दिसा' परलोकदिगुपदर्शनपरः सूरिणा स्थापितः भवतां दिशं मोक्षवर्तनीमयमुपदिशति यः सूरिः स दिशा इत्युच्यते । 'खमावणा' क्षमाग्रहणं । 'अणुसिळि' सूत्रानुसारेण शासनम । 'परगणे' अन्यस्मिन्गणे 'चरिया' चर्या प्रवृत्तिः । 'मग्गण'मात्मनो रत्नत्रयविद्धि समाधिमरणं वा संपादयितुं क्षमस्य सूरेरन्वेषणं । 'सुटिदो' सुस्थितः परोपकरणे स्वप्रयोजने च सम्यक स्थितः सुस्थितः आचार्यः । 'उपसंपया' आचार्यस्य ढोकनं । 'पडिछा' परीक्षा । गणस्य, परिचारकस्य, आराधकस्य, उत्साहशक्तेश्च आहारगताभिलाषं त्यक्तुमयं क्षमो नेति । 'पडिलेहा' आराधनाया व्याक्षेपेण विना सिद्धिर्भवति न
समका अर्थ एकीभाव है । जैसे 'संगत घृत' का अर्थ एकमेक हुआ ही है । समाधानका अर्थ है शुभोपयोग अथवा शुद्धोपयोगमें मनका एक रूप करना। अनियत विहारका अर्थ है अनियत क्षेत्रमें रहना । तत्वार्थ सूत्रमें 'तद्भाव' को परिणाम कहा है। अतः जीवादि द्रव्यके क्रोधादि या दर्शन आदि रूपसे होनेको परिणाम कहते हैं । यद्यपि सामान्य परिणाम गाथामें कहा है तथापि यहाँ साधुके द्वारा अपने कर्तव्यको आलोचनाको परिणाम शब्दसे ग्रहण किया है। उपधिका अर्थ परिग्रह है। उसका त्याग उपधिजहणाका अर्थ है। 'सिदी' या श्रितिका अर्थ श्रेणियां सोपान है। भावनाका अर्थ अभ्यास उसमें बार-बार प्रवृत्ति करना है ।।६।। ___ गा०–सल्लेखना, दिशा, क्षमाग्रहण, शिक्षा ग्रहण, अन्य गणमें प्रवृत्ति, आचार्यकी खोज सुस्थित उपसंपदा, परीक्षा, प्रतिलेखना ।।६७||
_____टी०-कषाय और शरीरको सम्यक् रीतिसे कृश करना सल्लेखना है। आचार्य अपने स्थानपर जिसे स्थापित करते हैं कि यह आपको परलोककी दिशा दिखलाते हुए मोक्ष मार्गका उपदेश देगा वह आचार्य दिशा कहलाता है। क्षमा ग्रहण करनेको खामणा कहते हैं । शास्त्रानुसार शिक्षा देनेको अणुसिट्ठि कहते हैं । परगण अर्थात् दूसरे संघमें जानेका परगण चरिया कहते हैं | अपनी रत्नत्रय विशुद्धि अथवा समाधिमरण कराने में समर्थ आचार्यके खोजनेका मार्गण कहते हैं । परका उपकार करने में और अपने प्रयोजनमें सम्यक् रूपसे स्थित आचार्यको सुस्थित कहते हैं । आचार्यके पास जानेको उपसंपदा कहते हैं। गण, परिचारक, आराधक और उत्साह शक्ति की और यह आराधक आहारको अभिलाषा छोड़ने में समर्थ है या नहीं इन सबकी परीक्षा करना
१. श्रितिः श्रेणिः निश्रेणिः सो. आ. मु० । २. वर्तन्या अयमु०-अ० । वर्तन्याशयमु-मु०
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