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विजयोदया टीका
११३ भक्तप्रत्याख्यानार्हस्य तत्प्रत्याख्यानपरिकरभूतलिंगनिरूपणं उत्तराभिर्गाथाभिः क्रियते
उस्सग्गियलिंगकदस्स लिंगमुस्सग्गियं तयं चेव ॥
अववादियलिंगस्स वि पसत्थमुवसग्गियं लिंगं ॥७६।। उस्सग्गिलिंगवस्स उत्कर्षेण सर्जनं त्यागः सकलपरिग्रहस्य उत्सर्गः। उत्सर्गे सकलग्रंथपरित्यागे भवं लिंग औत्सगिकं किं करोति क्रियासामान्यवचनोऽत्र सृज्यों ग्राह्यः घातूनामनेकार्थत्वादिति वचनात् । तेनायमर्थः औत्सर्गिकलिंगस्थितस्य भक्तप्रत्याख्यानाभिलाषवतः । 'तं चेव उस्सग्गियं लिगं तदेव प्राक गृहीतं लिंगं औत्सर्गिकम् । 'अववादिलिंगस्स वि' यतीनामपवादकारणत्वात् परिग्रहोऽपवादः, अपवादो यस्य विद्यते इत्यपवादिकं परिग्रहसहितं लिंगं अस्येत्यपवादिकलिंगं भवति । वाक्यशेषं कृत्वा एवं पदसंबंध: कार्यः । 'बा पसलिंग' यदि प्रशस्तं शोभनं लिंग मेहनं भवति । चर्मरहितत्वं, अतिदीर्घत्वं, स्थूलत्वं, असकृदुत्यानशीलतेत्येवमादिदोषरहितं यदि भवेत् । पुंस्त्वलिंगता इह गृहीतेति बीजयोरपि लिंगशब्देन ग्रहणं । अतिलंबमानतादिदोषरहितता प्रशस्ततापि तयोर्गहीता ॥७६॥ अप्रशस्तलिङ्गस्य औत्सर्गिकं लिगं न भवत्येवेत्यस्यापवादमाह
जस्स वि अवभिचारी दोसो तिहाणिगो विहारम्मि । सो वि हु संथारगदो गेण्हेज्जोस्सुग्गियं लिंगं ॥७७॥
जो भक्तप्रत्याख्यान करनेके योग्य है उसके भक्तप्रत्याख्यानका परिकर जो लिंग है, उस लिंगका कथन आगेकी गाथाओंसे करते हैं
गा०-जो औत्सर्गिक लिंगमें स्थित है उसका जो पूर्वगृहीत है वही औत्सर्गिक लिंग होता है। आपवादिक लिंगवालेका भी औत्सर्गिक लिंग होता है यदि उसका पुरुष चिह्न दोष रहित हो ॥७॥
दो०-उत्कृष्टसे 'सर्जन' अर्थात् सकलपरिग्रहके त्यागको उत्सर्ग कहते हैं। 'उत्सर्ग' अर्थात् सकल परिग्रहके त्यागसे होनेवाले लिंगको औत्सर्गिक लिंग कहते हैं । यहाँ सृज् धातुका अर्थ क्रिया सामान्यवाची लेना चाहिए । क्योंकि ऐसा कहा है कि धातुओंके अनेक अर्थ होते हैं। तब ऐसा अर्थ होता है कि जो औत्सर्गिक लिंगमें स्थित है और भक्तप्रत्याख्यानकी अभिलाषा रखता है उसका वही लिंग रहता है जो उसने पूर्वमें ग्रहण किया है अर्थात् औत्सगिक लिंग ही रहता है। मुनियोंके अपवादका कारण होनेसे परिग्रहको अपवाद कहते हैं। जिसके अपवाद हो वह अपवादिक है अर्थात् परिग्रह सहित लिंगवाला आपवादिक लिंगी होता है। वह यदि भक्तप्रत्याख्यान करना चाहता है तो उसे परिग्रहको त्यागकर औत्सर्गिक लिंग धारण करना होता है। इस लिंग धारण करनेपर नग्न होना पड़ता है। किन्तु उसके सम्बन्धमें यह नियम है कि उसका लिंग-पुरुष चिह्न प्रशस्त होना चाहिए। लिंगका चर्मरहित होना, अतिदीर्घ होना, स्थूल होना, और बारबार उत्तेजित होना ये दोष है । इन दोषोंसे रहित होनेपर ही औत्सर्गिक लिंग दिया जाता है । यहाँ लिंग शब्दसे पुरुष चिह्नका ग्रहण किया है । तथा उससे अण्डकोष भी ग्रहण होता है। वे भी अति लटकते हुए लम्बे नहीं होना चाहिए ॥७६॥
आगे 'अप्रशस्त लिंगवालेके औत्सर्गिक लिंग नहीं होता है, इस कथनका अपवाद कहते हैं
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