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विजयोदया टीका
वा राज्यस्य तस्य देशस्य ग्रामनगरादेस्तत्र प्रधानस्य वा शोभनं वा नेति एवं निरूपणम् ॥ ६७ ॥
आपुच्छा य पडिच्छण मेगस्सालोयणा य गुणदोसा ।
सेज्जा संथारो विय णिज्जवग पयासणा हाणी || ६८ ||
'आपुच्छा' प्रतिप्रश्नः । किमयमस्माभिरनुगृहीतव्यां न वेति संघप्रश्नः । 'पडिच्छणमेगस्स' प्रति चार कैरभ्यनुज्ञातस्यैकस्य संग्रह आराधकस्य । 'आलोयणा य' स्वापराधनिवेदनं गुरूणामालोचना | 'गुणदोसा' तस्या गुणदोषा: । 'सेज्जा शय्या वसतिरित्यर्थः । आराधकावासगृहमिति यावत् । संथारो वि य' संस्तरश्च । णिज्जावगा' निर्यापकाः आराधकस्य समाधिसहायाः । पयासणा चरमाहारप्रकाशनम् । 'हाणी' क्रमेणाहारत्यागः हानिः ॥ ६८ ॥
पच्चक्खाणं खामणं खमणं अणुसठिसारणाकवचे ||
समदाज्झाणे लेस्सा फलं विजहणा य णेयाई ॥ ६९ ॥
'पच्चक्खाणं' प्रत्याख्यानं त्रिविधाहारस्य । 'खामणं' आचार्यादीनां क्षमाग्रहणं । 'खमणं' स्वस्यान्य भूतापराधे क्षमा । 'अणुसठि' अनुशासनं शिक्षणं निर्यापकस्याचार्यस्य । 'सारणा' दुःखाभिभवान्मोहमुपगतस्य निश्चेतनस्य चेतनाप्रवर्तना सारणा । 'कवचे' यथा कवचस्य शरशतनिपातदुःखनिवारणक्षमता एवमाचार्येण
‘पडिछा' है। आराधनाकी सिद्धि विना बाधाके आदि वहाँका प्रधान ये सब आराधनाके योग्य हैं कहते है ॥६७॥
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होगी या नहीं, तथा राज्य, देश, ग्राम नगर या नहीं, इस प्रकारके निरूपणको पडिलेहा
गा०—- पूछना एक क्षपकको स्वीकार करना, और आलोचना, आलोचनाके गुण दोष, शय्या अर्थात् वसति, और संस्तर, निर्यापक, अन्तिम आहारका प्रकाशन क्रमसे आहारका
त्याग ॥ ६८ ॥
टी० - जब कोई आराधक समाधिमरणके लिये आवे तो आचार्यका संघसे पूछना कि हम इसे स्वीकार करें या नहीं आपृच्छा है । आराधककी सेवा करने वाले मुनियोंकी स्वीकृति मिलने पर एक आराधकको लेना 'एकका पडिच्छण है । गुरुके सामने अपने अपराधका निवेदन आलोचना है । आलोचनाके गुण और दोष 'गुणदोस' हैं । आराधकके रहनेका स्थान शय्या है उसे वसति भी कहते हैं संस्तरको संथार कहते हैं । आराधककी समाधिमें जो सहायक मुनि होते हैं उन्हें निर्यापक कहते हैं । आराधकके सामने अन्तिम आहारका प्रकाशन 'पगासणा' है। और क्रम आहार त्यागको हानि कहते हैं || ६८ ॥
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गा०- प्रत्याख्यान, क्षमा ग्रहण, दूसरोंके अपराधको क्षमा करना । शिक्षण, सारणा, कवच, समभाव, लेश्या, आराधनाका फल (य) और (विजहणा) शरीर त्याग ये अधिकार जानना ॥ ६९ ॥
टी० - तीनों प्रकारके आहारका त्याग करना प्रत्याख्यान है । आचार्य आदिसे क्षमा मांगना खामण है । दूसरेसे हुए अपराधको क्षमा करना खमण है । निर्यापकाचार्य जो शिक्षा देते हैं वह अनुशिष्टि है । दुःखसे पीड़ित होकर बेहोश हुए चेतना रहित आराधकको सचेत करना सारणा' है। जैसे कवचमें सैकड़ों बाणोंके लगनेसे होनेवाले दुःखको दूर करनेकी सामर्थ्य है । वैसे ही .
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