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विजयोदया टीका
१०९ जरापसारितशरीरबल: शरीरबलसाध्येषु कायक्लेशेषु न वर्तितुमुत्सहते । अथवा सममणो 'समणो' समणस्स भावो सामण्णं । क्वचिदप्यननुगतरागद्वेषता समता सामण्णशब्देनोच्यते । वस्तुयाथात्म्यावहितचेतस्तया योगः संबंधो ध्यानयोग इति यावत । वस्तयाथात्म्यावबोधो निश्चलो यः स ध्यानमिष्यते । जरापरिप्लुतबोधस्य ध्यानं विनश्यति । ततो ध्यानयोगविनाशकारिणी जरा यस्य सोर्हति भक्तं त्यक्तुम् । अथवा सामण्णं समतां, युज्यंतेऽनेन निर्जराथिन इति योगः, तप: । योगशब्दस्तपसि कायक्लेशाख्ये रूढः सोऽत्र गृहीतः । 'आदावणादिजोगधारिणो अणागारा' इत्युक्तेः आतापनादितपोधारिणः इति प्रतीयते ।
द्वंद्वे अल्पाच्तरत्वाद्योगशब्दस्य पूर्वनिपातप्रसंग इति चेत् न अभ्यहितत्वात्समतायाः सामण्ण इत्यस्य पूर्वनिपात इति मन्यते, पूर्वतोऽभ्यहितमिति वचनात् । न हि समताशून्यात्तपसो विपुला निर्जरा भवति । सत्यां तु समतायां निर्जरा भवति । ततस्तपसो निर्जराहेतुता समतापरवशेति प्रधानं समता ।
__उवसग्गा वा उपद्रवा वा 'देवियमाणुसतेरिक्खिगा' देवर्नरैस्तिर्यग्भिश्च प्रवर्तिता यस्य सोर्हति भक्तप्रत्याख्यानं इति संबंधः । चतुर्विधत्वादुपसर्गस्य त्रैविध्योपदेशः कथमिति ? अत्रोच्यते-उपसर्गा वा इति वा शब्दः समुच्चयार्थोऽसौ देवियमाणुसतेरिक्खिगा वा इति संबंधनीयस्तेनाचेतनोपसर्गसमुच्चयः क्रियते ॥७॥ जाता है वह शरीरमें रहते बलके द्वारा करने योग्य कायक्लेशोंमें प्रवृत्त होनेके लिए उत्साहित नहीं होता। अथवा जिसका मन सम है वह समण है। समणका भाव सामण्ण है। किसी भी वस्तुमें रागद्वेष न करनेरूप समता 'सामण्ण' शब्दसे कही जाती है। वस्तुके यथार्थस्वरूपमें चित्तका लगना. उसके साथ योग-सम्बन्ध अर्थात् ध्यान योग। वस्तुके यथार्थस्वरूपका जो ज्ञान निश्चल होता है उसे ध्यान कहते हैं। बुढ़ापेसे ज्ञानके व्याप्त हो जानेपर ध्यान नष्ट हो जाता है। अतः ध्यानयोगका विनाश करनेवाली जरा जिसके है वह भोजनका त्याग करनेके योग्य है। अथवा समताको सामण्ण कहते हैं। और निर्जराके इच्छक जिससे यवत होते हैं वह योग अर्थात तप है। योग शब्द कायक्लेश नामक तपमें रूढ है। वही यहाँ योग शब्दसे लिया है। क्योंकि 'आदावणादि जोगधारिणो अणगारा' इस कथनसे 'आतपन आदि तपको धारण करनेवाले' ऐसा अर्थ प्रतीत होता है।
शंका-'योग' शब्द अल्प अच्वाला है। अतः द्वन्द्व समासमें सामण्णसे पहले 'जोग' शब्द रखना चाहिए?
समाधान-नहीं, क्योंकि समता पूज्य है अतः सामण्णको पहले रखना उचित है क्योंकि जो पूज्य होता है उसे पहले स्थान दिया जाता है ऐसा शास्त्रका वचन है । समताशून्य तपसे बहत निर्जरा नहीं होती। किन्तु समताके होनेपर होती है। अतः तप समताके परवश होकर निर्जरामें कारण होता है इसलिए समता प्रधान है।
अथवा देव, मनुष्य और तिर्यञ्चोंके द्वारा जिसपर उपसर्ग किया गया हो वह भवत प्रत्याख्यानके योग्य होता है।
शंका-उपसर्ग तो चार प्रकारका होता है । यहाँ तीन प्रकारका क्यों कहा ?
समाधान–'उपसर्गा वा' में 'वा' शब्दका अर्थ समुच्चय हैं। उससे अचेतनकृत उपसर्गका समुच्चय होता है ॥७॥
१. त्रिविधो-अ० गु० ।
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