________________
विजयोदया टीका
१०१
'गुणा वि' गुणा अपि अहिंसादयो गुणा अपि । 'दोसावहा' दोषावहाः संसारे चिरपरिभ्रमणदोषमावहन्तीत्यर्थः । अथवा मिथ्यादृष्टेर्गुणाः पापानुबंधि स्वल्पमिन्द्रियसुखं दत्वा बहारंभपरिग्रहादिषु आसक्तं नरके पातयन्ति इति दोषावहाः । दृष्टान्तप्रदर्शनेन इष्टनिर्वृतिः । प्राप्तिश्च मिथ्यात्वमाहात्म्यान्न भवतीति प्रमाणेन दर्शयितु गाथाद्वयमायातम् ॥५७॥
दिवसेण जोयणसयं पि गच्छमाणो समिच्छिदं देतं ।
अणतो गच्छंतो जह पुरिसो णेव पाउणदि ||५८ ||
इत्यनेन प्रकृष्टगमनसामर्थ्याद्भमण' माख्यातम् । 'अण्णंतो गच्छंती' इत्यनेन तन्मार्गाप्रवृत्तत्वात् इत्ययं हेत्वर्थो दर्शिताः । तेन इष्टं देशं न प्राप्नोतीति साध्यधर्मो दृष्टान्तेनोपदर्शितः । 'सगिच्छदं देसं जह पुरिसो व पाउणवि इत्यनेन दृष्टान्त उपदर्शितः ॥ ५८॥
धणिदं पि संजमतो मिच्छादिट्ठी तहा ण पावेई ।
इट्ठ णिव्वुइमग्गं उग्गेण तवेण जुत्तों वि ॥५९॥
'घणिदं' पि नितरामपि । 'संजमंतो' चारित्रे वर्तमानोऽपि । 'उश्गेण तवेण जुत्तोवि' उग्रेण तपसा युक्तोपि, नैव निर्वृतिं प्राप्नोति इत्यनेन साध्यधर्माख्यानम् । मिच्छादिट्ठी इत्यनेन साध्यधर्मि दर्शितम् । एवं प्रमाणरचना कार्या—
मिथ्यादृष्टिनैवेष्टं प्राप्नोति तन्मार्गावृत्तित्वात् । यः स्वप्राप्यस्य मार्गे न प्रवर्तते न स तमभिमतं प्राप्नोति । यथा दक्षिणमथुरातः पाटलिपुत्रं प्राप्तुमिच्छुः दक्षिणां दिशं गच्छन्निति । 'विदि' निवृति |
दोषावह होते हैं अर्थात् संसार में चिरकाल तक भ्रमणरूपी दोषको करनेवाले होते हैं । अथवा मिथ्यादृष्टि गुण पापका बन्ध करानेवाले थोडेसे इन्द्रिय सुखको देकर बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह में आसक्त उस जीवको नरकमें गिराते हैं यह दोष कारक है । दृष्टान्त द्वारा दिखलाने से मिथ्यात्वके माहात्म्यसे इष्टकी उत्पत्ति और प्राप्ति नहीं होती, यह प्रमाण द्वारा बतलानेके लिए दो गाथाएँ आई हैं ।
गा०—जैसे एक दिनमें सौ योजन भी चलनेवाला यदि अन्य मार्गसे जाता है तो वह पुरुष अपने इच्छित देशको नहीं प्राप्त होता || ५८||
टी०—इससे चलनेको उत्कृष्ट सामर्थ्य होनेसे संसार भ्रमण कहा है । अन्यत्र जानेवाला' इस पदसे 'अपने मार्गपर न चलने से' इस हेतु अर्थको दिखलाया है । अपने इच्छित देशमें न पहुँचने में हेतु है उसका सही मार्ग से न चलना । इष्ट देशको प्राप्त नहीं होता' यह साध्य धर्मं दृष्टान्त द्वारा बतलाया है । अर्थात् प्रतिदिन सौ योजन चलनेवाला मनुष्य अपने इष्ट स्थानको प्राप्त नहीं होता क्योंकि वह सही मार्गसे नहीं जाता ||१८||
गा० - उसी प्रकार अत्यन्त भी चारित्रका पालन करनेवाला उग्र तप करते हुए भी मिथ्यादृष्टि इष्ट प्रधान मोक्ष नहीं पाता ॥५९॥
टो० - मिथ्यादृष्टि इष्टको प्राप्त नहीं करता, क्योंकि इष्टके मार्गपर नहीं चलता । जो
o
अपने इष्टकी प्राप्ति मार्गपर नहीं चलता, वह अपने इष्टको प्राप्त नहीं करता । जैसे दक्षिण
१. बलमाख्यातं - अ०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org