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भगवती आराधना
'अग्गं' अग्र्यां । अथवा निर्वृतिस्तुष्टिर्यथा मनसो निर्वृतिर्मनस्तुष्टिरित्यर्थः । निवृतेमार्गमुपायं क्षायिकज्ञानचारित्राख्यम् । स्पष्टतया न प्रतिपदं व्याख्या कृता ॥५९॥
व्रतेन शीलेन तपसा वा युक्तोऽपि मिथ्यात्वदोषाच्चिरं संसारे परिभ्रमति इतरस्मिन्त्रतादिहीने किं वाच्यमिति दर्शयति-
जस्स पुण मिच्छदिट्ठिस्स णत्थि सीलं वद गुणो वावि । सो मरणे अप्पाणं किहण कुणई दीहसंसारं ॥ ६० ॥
स्वल्पापि मिथ्यात्वविषकणिका कुत्सितासु योनिषु उत्पादयति किमस्ति वाच्यं सर्वस्य जिनदृष्टस्याश्रद्धाने इति गाथाया अर्थः ॥ ६० ॥
एक्कं पि अक्खरं जो अरोचमाणो मरेज्ज जिणदिट्ठ || सो वि कुजोणिणिवुड्डो किं पुण सव्वं अरोचंतो ॥ ६१ ॥
एक्कमपीत्यस्य बालबालमरणप्रवृत्तस्य भव्यस्य संख्याता, असंख्याता, अनंता वा भवन्ति भवाः । अभव्यस्य तु अनंतानंताः । मिथ्यादर्शनदोषमाहात्म्यसूचनं संसारमहत्ताख्यापनेन क्रियतेऽनया गाथया ॥ ६१ ॥ संखेज्जासंखेज्जाणंता वा होंति बालबालम्मि ||
सेसा भव्वस्स भवा णंताणंता अभव्वस्स ||६२ ||
मथुरासे पाटलीपुत्र जानेका इच्छुक यदि दक्षिण दिशामें जाता हैं तो वह पाटलीपुत्र नहीं पहुँच सकता । उसी तरह मिथ्यादृष्टि भी प्रधानभूत मोक्षको नहीं प्राप्त करता; क्योंकि निर्वृत्ति अर्थात् मोक्षका मार्ग या उपाय क्षायिकज्ञान और क्षायिकचारित्र है अथवा निवृत्तिका अर्थ तुष्टि है । जैसे मनकी निर्वृत्तिका अर्थ मनकी तुष्टि है । अर्थात् उसे अनन्तसुख प्राप्त नहीं होता । स्पष्टरूपसे प्रत्येक पदकी व्याख्या नहीं की है ॥ ५९॥
आगे कहते हैं कि जब व्रत, शील और तपसे युक्त होनेपर भी मिथ्यात्व दोषके कारण चिरकाल तक संसारमें भ्रमण करता है तब जो व्रतादिसे हीन है उसका तो कहना ही क्या हैगा० - जिस मिथ्यादृष्टिके शील व्रत अथवा ज्ञानादि भी नहीं है वह मरनेपर कैसे अनन्त संसार नहीं करता है ॥ ६०॥
टी० - यदि मिथ्यात्वरूपी विषकी छोटी-सी भी कणिका कुत्सित योनियोंमें उत्पन्न कराती है तो जिन भगवान् के द्वारा देखे गये समस्त तत्त्वोंका श्रद्धान न होनेपर तो कहना ही क्या है ? ||६०||
गा०-जिन भगवान् के तो वह भी कुयोनियों में डूबता है, क्या है ॥ ६१ ॥
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द्वारा देखा गया एक भी अक्षर जिसे रुचता नहीं है वह मरे तब जिसे सब ही नहीं रुचता उसके सम्बन्ध में तो कहना ही
दी०—बालबालमरणसे मरनेवाले भव्य के संख्यात, हैं और अभव्य के तो अनन्तानन्त भव होते हैं । इस गाथासे द्वारा मिथ्यादर्शन दोषके माहात्म्यका सूचन किया है ॥ ६१ ॥
असंख्यात अथवा अनन्त भव होते संसारकी महत्ताका कथन करनेके
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