________________
९८
भगवती आराधना
'जो पुण मिच्छाक्छिी' यः पुनमिथ्यादृष्टिस्तत्त्वश्रद्धानरहितो। यः पुन'ढचरित्तो अदढचरित्तो वा' दृढचारित्रो वा अदृढचारित्रो वा । 'कालं करेज्ज' मृतिमुपेयात् । 'सो' सः । 'ण खु' नैव । 'कस्सई' कस्यचिदपि । 'माराधगो' आराधको भवति । सम्यक्त्वमंतरेण सम्यग्ज्ञानसम्यक्चारित्रे न स्तः, इति रत्नत्रये कस्यचिदपि नाराधक इति ग्राह्यम् । अन्यथा मिथ्यादर्शनादीनामाराधक एवासौ इति कृत्वा न कस्यचिदपि इत्ययुक्तं स्यात् ॥५४॥ अथ को मिथ्यादृष्टिर्यो मिथ्यात्ववान् । अथ तदेव मिथ्यात्वं नाम किं कतिविधं इत्यत आह
तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं तच्चाण होइ अत्थाणं ।
संसइयमभिग्गहियं अणभिग्गहियं च तं तिविहं ॥५५॥ 'त' तत् । 'मिच्छत्तं' मिथ्यात्वं । 'होदि' भवति । 'ज' यत् 'असद्दहणं' अश्रद्धानं । कस्य ? 'तच्चाणं' 'अत्थाणं' तत्वार्थानामनंतद्रव्यपर्यायात्मकानां जीवादीनां । अर्थस्य तत्त्वविशेषणमनर्थकम् । अतत्त्वरूपस्याभावात् इति चेन्न मिथ्याज्ञानोपदर्शितस्य नित्यत्वक्षणिकत्बाद्यन्यतमधर्ममात्रात्मकस्यातत्त्वरूपसंभवात् । तस्य भावस्तत्वं तत्त्वशब्दो भाववचनः । भाववत्वमर्थशब्दो ब्रवीति । ततोऽनयोभिन्नाधिकरणभृतोः कथं समानाधिकरणतेति न दोषः। भावदव्यतिरेकाद्भावस्य तत्त्वशब्दोऽर्थएव वर्तते इति । तथा च प्रयोगः-- चारित्र तो उसके है अतः वह उनका आराधक हो सकता है ? इस शंकाको दूर करने के लिए कहते हैं
गाo-जो पुनः मिथ्यादृष्टि हैं वह दृढ़ चारित्र वाला अथवा अदृढ़ चारित्र वाला हो और मरण करे तो वह किसीका भी आराधक नहीं ही होता ॥५४॥
टी०-जो मिथ्यादृष्टि अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धानसे रहित है वह दृढ़ चारित्र वाला हो या अदृढ़ चारित्र वाला हो और मरण करे तो वह ज्ञान या चारित्रका भी आराधक नहीं होता; क्योंकि सम्यक्त्वके बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र नहीं होते। इसलिये रत्नत्रयमें से किसी का भी वह आराधक नहीं है ऐसा अर्थ लेना चाहिये । यदि ऐसा अर्थ नहीं लिया जाये तो मिथ्यादर्शन आदिका वह आराधक ही होनेसे 'किसीका भी आराधक नहीं' ऐसा कहना ठीक नहीं होगा ।।५४||
जो मिथ्यात्ववान् है वही मिथ्यादृष्टी है। तब वह मिथ्यात्व क्या है और उसके कितने भेद हैं ? यह कहते हैं
गा०-जो तत्त्वार्थोंका अश्रद्धान है वह मिथ्यात्व है उसके तीन भेद है । संशयसे होनेवाला मिथ्यात्व, अभिगृहीत मिथ्यात्व और अनभिगृहीत मिथ्यात्व ॥५५॥
.टी०-तत्त्वार्थ अर्थात् अनन्त द्रव्य पर्यायात्मक जीवादिका अश्रद्धान मिथ्यात्व है। शंका-अर्थका तत्त्व विशेषण देना निरर्थक है क्योंकि अतत्त्वरूप अर्थका अभाव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्याज्ञानके द्वारा दिखलाये गये नित्यता क्षणिकता आदिमेंसे किसी एक धर्म वाला अतत्त्वरूप अर्थ संभव है।
शंका-तत्के भावको तत्त्व कहते हैं । तत्त्व शब्द भाव वाचक है और अर्थ शब्द भाववान् को कहता है। अतः ये दोनों भिन्न-भिन्न अधिकरण वाले हैं। इनका सामानाधिकरण्य कैसे हो सकता है ?
समाधान-यह दोष नहीं है क्योंकि भाव भाववान्से अभिन्न होता है अतः तत्त्वशब्द
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org