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भगवती आराधना
गुणानुरागत्मकः । अप्रशस्तो रागो द्विविधः इंद्रियविषयेषु मनोज्ञेषु जायमानः । आप्ताभासेपु, तत्प्रणीते सिद्धांते, तन्निरूपिते मार्गे, तत्स्थेषु वा प्रवर्तमानः दृष्टिरागः इति । तत्र प्रशस्तरागसहितानां श्रद्धानं सरागसम्यग्दर्शनं । रागद्वयरहितानां क्षीणमोहावरणानां वीतरागसम्यग्दर्शनं । तस्याराधना उत्कृष्टा रागमलाभावात् अशेषत्रिकाल गोचरवस्तुयाथात्म्यग्राहिसकलज्ञानसहचारित्वाच्च ।
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'मज्झिमगा' मध्यमिका सम्यक्त्वाराधना भवति । 'सेससम्मदिट्ठीणं' उपयुक्तेतरवचनः शेषशब्दः इति केवलिभ्यो येऽन्येऽसंयतसम्यग्दृष्टघादयस्त्रे परिगृह्यन्ते शेषशब्देन ।
तत्रापवादमाह्—‘अविरदसम्मादिट्टिस्स' असंयतसम्यग्दृष्टेः । 'जहण्णा' जघन्या सम्यक्त्वाराधना भवति । किं सर्वस्य ? नेत्याह - "संकिलिट्ट्ठस्स' संक्लिष्टस्य परीषहव्याकुलचेतसः इति यावत् ।
जघन्यसम्यक्त्वाराधनामाहात्म्यं कथयति—
संखेज्जमसंखेज्जगुणं वा संसारमणुसरित्तूणं । दुक्खक्खयं करेंति जे सम्मत्तेणणुमरंति ॥ ५१ ॥
'संखेज्जमंसखेज्जगुणं वा संसार मणुसरित्तूर्ण' परिभ्रम्य । 'दुक्खक्खयं' दुःखक्षयं । 'कति' कुर्वन्ति । के 'जे सम्मत्तेणणुम रंति' सम्यक्त्वेन सह मृतिमुपयान्ति । नन्वियं जघन्या सम्यक्त्वाराधना तस्यां च प्रवृत्तस्य संसारकालो निरूपित एव । 'संखेज्जं वा असंखेज्जं वा सेसा जहण्णाए' इति तत्पुनरुक्तता स्यादिति । न,
प्रवचनमें. उनके गुणोंमें अनुराग रूप प्रशस्तराग है । अप्रशस्त रागके दो भेद हैं एक तो मनको प्रिय लगने वाले इन्द्रिय विषयोंमें होनेवाला और दूसरा, मिथ्या देवों में, उनके द्वारा कहे गये सिद्धान्तमें, उनके द्वारा कहे गये मार्ग में अथवा उस मार्ग के अनुयायियों में प्रवर्तमान दृष्टिराग । उनमें से प्रशस्त राग सहित जीवोंका श्रद्धान सरागसम्यग्दर्शन है और दोनों प्रकारके रागसे रहित तथा जिनका मोह और आवरण क्षीण हो गया है उनका श्रद्धान वीतराग सम्यग्दर्शन है । उसकी आराधना उत्कृष्ट है । क्योंकि राग और मलका अभाव है तथा समस्त त्रिकालवर्ती पदार्थोंके यथार्थं स्वरूपको ग्रहण करनेवाले सम्पूर्ण ज्ञानके साथ होता है ।
शेष सम्यग्दृष्टियोंके मध्यम सम्यक्त्वाराधना होती है । यहाँ शेष शब्द जो कहे हैं उससे अन्यका वाचक है, अतः केवलीसे अन्य जो असंयत सम्यग्दृष्टि हैं वे शेष शब्दसे ग्रहण किये जाते हैं । उसमें अपवाद कहते हैं कि अविरत सम्यग्दृष्टिके जघन्य सम्यक्त्वाराधना होती है । क्या सभीके होती है । इसके उत्तर में कहते हैं जो संक्लिष्ट है अर्थात् जिसका चित्त परीषहसे व्याकुल है उस अविरत सम्यग्दृष्टीके जघन्य सम्यक्त्वा राधना होती है ॥५०॥
जघन्य सम्यक्त्वाराधनाका माहात्म्य कहते हैं
गा० - जो सम्यक्त्वके साथ मरते हैं वे असंख्यात अथवा असंख्यातगुणे संसारमें भ्रमण करके दुःखका क्षय करते हैं ॥ ५१ ॥
टी० - शंका - यह तो जघन्य सम्क्त्वाराधना है । उसे जो करता है उसका संसार काल पहले कहा ही है कि जघन्य सम्यक्त्वाराधनावालेके संख्यात या असंख्यात भव शेष रहते हैं । अतः पुनरुक्तता दोष आता है ?
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