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विजयोदया टीका उक्तस्यार्थस्याविशेषेण भूयोऽभिधानं पुनरुक्तमिति, इह तु विशेषाभिधानमस्ति 'दुक्खक्खयं करेंतित्ति' । सम्यक्त्वलाभमाहात्म्यनिवेदनाय गाथा
लध्दण य सम्मत्तं मुहुत्तकालमवि जे परिवडंति ।
तेसिमणंताणंता ण भवदि संसारवासद्धा ॥५२॥ 'लक्ष्ण' लब्ध्वा । 'सम्मत्तं' तत्त्वश्रद्धान । कियत्कालं ? 'महत्तकालमवि' अंतर्मुहूर्तमात्रमपि । 'ज' ये 'परिवडंति' सम्यक्त्वात्प्रच्यवन्ति अनंतानुबंधिनामुदयात् । तसि' तेषां सम्यक्त्वात्प्रच्युत्य मिथ्यात्वं गतांनां । 'संसारवासद्धा' संसारवसनकालोऽनंतो भवत्येवेति, तु शब्द एवकारार्थोत्र संबंधनं नेयः। अनंतानंतग्रहणं कुर्वता अनंतकालपरिभ्रमणसद्भावसूचनं कृतम् ॥५२॥ इति बालमरणम् ॥
जे पुण सम्मत्ताओ पन्भट्ठा ते पमाददोसेण । . भामन्ति दु भन्वा वि हु संसारमहण्णवे भीमे ॥५३॥
मिथ्यादृष्टेर्दर्शनस्याभावान्न तस्याराधकः स्यात् ज्ञानचारित्रयोः परिणत इति तयोराराधकः स्यादितीमां शंकामपाकर्तुमाह
जो पुण मिच्छादिट्ठी दढचरित्तो अदढचरित्तो वा ।।
कालं करेज्ज ण हु सो कस्स हु आराहओ होदि ॥५४॥ समाधान नहीं, जो बात पूर्व में कही है उसे बिना किसी विशेषताके पुनः कहनेको पुनरुक्त कहते हैं। किन्तु यहाँ तो विशेष कथन है कि दुःखका क्षय करते हैं ॥५१॥
सम्यक्त्वका माहात्म्य कहनेके लिये गाथा कहते हैं
गा०-जो अन्तमुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्वको प्राप्त करके सम्यक्त्वसे गिर जाते हैं उनका संसारमें बसनेका काल अनन्तानन्त नहीं होता ॥५२॥
टी०-एक अन्तमुहर्त कालके लिये भी जो तत्त्वश्रद्धान रूप सम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुबन्धी कषायका उदय होनेसे सम्यक्त्वसे गिर जाते हैं। सम्यक्त्वसे गिरकर मिथ्यात्वमें जाने वाले उन जीवोंका संसारमें बसनेका काल अनन्त ही होता है। 'अनन्तानन्तकाल नहीं होता' ऐसा कहनेसे अनन्तकाल तक भ्रमणके सद्भावकी सूचना की है ॥५२॥
गा०-पुनः जो सम्यक्त्वसे भ्रष्ट हो जाते है। वे प्रमादके दोषसे भव्य होते हुए भी भयंकर संसाररूपी समुद्र में भ्रमण करते ही हैं ॥५॥
विशेषार्थ-इस गाथापर विजयोदया टीका नहीं हैं । आशाधर जी ने भी इसकी टीका नहीं की है । अतः क्षेपक प्रतीत होती है। किन्तु प्रतियोंमें पाई जाती है । तथा गाथा ५२ की विजयोदया टीकामें 'तु शब्दो एवकारार्थोऽत्र संबंधनं नेयः' ऐसा वाक्य है जिसका अर्थ होता है कि यहाँ तु शब्दका अर्थ एवकार लेना। 'आ' प्रतिमें पाठ हैं-'तु शब्दो एवकारार्थो भामत्य तु शब्दका अर्थ एवकार है और उसे 'भामंति' के अनन्तर लेना चाहिये। इस गाथा ५३ में 'भामंति दु' पाठ है । इसी दु या तु का अर्थ एवकार लेनेके लिये कहा है। अतः यह गाथा मूलकी होना संभव है ॥५३॥
मिथ्यादृष्टिके सम्यग्दर्शनका अभाव होनेसे वह उसका आराधक न होवे, किन्तु ज्ञान और १. कारार्थो भामंत्यनन्तर नयः । -आ० ! १३
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